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________________ अ०३. शीतोष्णीय, उ० ४. सूत्र ७४-७५ घटादि वस्तु जानाति, तस्यैवातीतानागतपर्यायभेदैस्तत्- घट आदि एक वस्तु को भी जान लेता है। क्योंकि उसी घट की तत्स्वभावापत्त्याऽनाद्यनन्तकालतया समस्तवस्तुस्वभाव- अतीत और अनागत पर्यायों के भेद से वह घट विभिन्न वस्तुओं के गमनादिति', तदुक्तम् स्वभाव को प्राप्त कर अनादि-अनंत काल में विश्व की सभी वस्तुओं के स्वभाव को प्राप्त कर चुका होता है । कहा भी है-- एगदवियस्स जे अत्थपज्जवा वयणपज्जवा वावि । एक द्रव्य में अतीत, अनागत और वर्तमान के जितने तोयाणागयभूया तावइयं तं हवइ दव्वं ॥ अर्थ-पर्याय और वचन-पर्याय होते हैं, वह द्रव्य उतना ही होता है।' विश्ववर्तीनि सर्वाण्यपि द्रव्याणि परंपरया विश्व के सारे द्रव्य परंपरा से संश्लिष्ट हैं। इसलिए एक द्रव्य संश्लिष्टानि वर्तन्ते। ततः एकस्य ज्ञानं सर्वेषां का ज्ञान करने के लिए सभी द्रव्यों का ज्ञान अपेक्षित होता है। ज्ञानमपेक्षते । जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणेन आकाररूपमक्षरं लक्ष्यी- जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ने आकाररूप अक्षर को लक्ष्य कर कृत्य लिखितं, सर्वमजानन् नाकारं सर्वथा जानाति-- लिखा है- जो सबको नहीं जानता वह एक 'आकार' अक्षर को भी नहीं जानता। 'एगं जाणं सब्वं जाणइ, सव्वं च जाणमेगं ति । जो एक को जानता है वह सबको जानता है। जो सबको इय सब्वमजाणतो, नागारं सव्वहा मुणइ ॥ जानता है वह एक को जानता है। जो सबको नहीं जानता वह एक 'आकार' को सर्वथा नहीं जानता। मलधारिहेमचन्द्रसूरिणा समर्थितमिदं एक किमपि मलधारी हेमचन्द्रसूरी ने इसी मत का समर्थन करते हुए वस्त सर्वैः स्वपरपर्यायः युक्तं जानन्-अवबुध्यमानः लिखा है जो किसी एक वस्तु को सभी स्व-परपर्यायों से युक्त जानता सर्व लोकालोकगतं वस्तु सर्वेः स्वपरपर्यायैर्युक्तं जानाति, है वह लोक और अलोक के सभी वस्तुओं को, सभी स्व-पर पर्यायों से सर्ववस्तुपरिज्ञाननान्तरीयकत्वाद् एकवस्तुज्ञानस्य । यश्च युक्त जानता है, क्योंकि एक वस्तु का ज्ञान सभी वस्तुओं के परिज्ञान का सर्वं सर्वपर्यायोपेतं वस्तु जानाति स एकमपि सर्वपर्यायो- अविनाभावी है। जो सर्वपर्यायों से युक्त सभी वस्तुओं को जानता है, पेतं जानाति, एकपरिज्ञानाऽविनाभावित्वात् सर्वपरि- वह एक वस्तु को भी सर्वपर्यायों से युक्त जानता है। क्योंकि सभी ज्ञानस्य । वस्तुओं का परिज्ञान एक वस्तु के परिज्ञान का अविनाभावी है। ७५. सव्वतो पमत्तस्स भयं, सव्वतो अप्पमत्तस्स नत्थि भयं । सं०-सर्वतः प्रमत्तस्य भयं, सर्वतः अप्रमत्तस्य नास्ति भयम् । प्रमत्त को सब ओर से भय होता है । अप्रमत्त को कहीं से भी भय नहीं होता। भाष्यम् ७५-कषायस्य स्वरूपज्ञानेन तथ्यमेतद कषाय का स्वरूप जान लेने पर यह तथ्य हृदयंगम हो जाता हृदयङ्गमं भवति-प्रमत्तस्य सर्वतो भयं भवति । है कि प्रमत्त पुरुष को सर्वतः भय होता है। सर्वतः का अर्थ है-द्रव्य सर्वतः-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, भावतश्च । से, क्षेत्र से, काल से और भाव से। द्रव्यतः-सर्वेषु आत्मप्रदेशेषु । द्रव्यतः--प्रमत्त व्यक्ति के सभी आत्मप्रदेशों में भय व्याप्त रहता है। १. सन्मतितर्कप्रकरण, ११३१ । स्वपर्याय और परपर्याय-इन दोनों पर्यायों से एक द्रव्य २. द्रव्य के त्रैकालिक पर्यायों को जानने वाले व्यक्ति का ज्ञान को जानने का अर्थ सब द्रव्यों को जानना है। इतना विकसित होता है कि उसमें सब द्रव्यों को जानने इसका आध्यात्मिक तात्पर्य इस भाषा में व्यक्त किया जा की क्षमता होती है। जिसमें सब द्रव्यों को जानने की सकता हैक्षमता होती है, वही वास्तव में एक द्रव्य को जान सकता जो आत्मा को जानता है, वह सबको जानता है, जो सबको जानता है, वही आत्मा को जानता है। द्रव्य के पर्याय दो प्रकार के होते हैं -स्वपर्याय और ३. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ४८४ । परपर्याय । स्वपर्याय और परपर्याय-इन दोनों को जाने ४. वही, गाथा ४८४ वृत्ति। बिना एक द्रव्य को भी पूर्णतः नहीं जाना जा सकता। Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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