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उपोद्घातः
तत् कर्मास्ति पापम् ।
पुद्गलसंश्लेषात्मक कर्मापीह सम्मतमस्ति । 'कर्मणा उपाधिः जायते' अत्र कर्मपदस्य प्रयोगः पौदगलिककर्मणा संबध्नाति–'कम्मुणा उवाही जायइ।" ___अस्य प्रतिपक्षे 'अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ'' इतिनिर्दिष्टमस्ति। अनेन जीवेन अपरिज्ञया प्रमादेन वा बहनि पापकर्माणि प्रकृतानि--- 'बहं च खलु पावकम्म । पगडं।' हिंसादिभिः पापकर्मभिः कर्मणां बंधो भवतीति परिज्ञया तेभ्यो निवतितव्यम् ....' इति कम्मं परिणाय सव्वसो से ण हिंसति । संजमति णो पगब्भति ।' उपरतो मेधावी सर्वाणि पापकर्माणि क्षपयति-'एत्थोवरए मेहावी सव्वं पावकम्मं झोसेति ।'५
परिज्ञा से प्रवृत्ति करता है वह कर्म पुण्य है और जहां अपरिज्ञा से प्रवृत्ति करता है वह कर्म पाप है।
पुद्गलों का संश्लेषणात्मक कर्म भी आचारांग में सम्मत है। कर्म से उपाधि होती है। यहां 'कर्म' पद का प्रयोग पौद्गलिक कर्म से सम्बन्ध रखता है।
इसके प्रतिपक्ष में 'कर्ममुक्त आत्मा के लिए कोई व्यवहार नहीं होता-नाम और गोत्र का व्यपदेश नहीं होता'-ऐसा निर्देश किया गया है । इस जीव ने अपरिज्ञा या प्रमाद के द्वारा बहुत पाप कर्म किए हैं। हिंसा आदि पाप कर्मों से कर्मों का बन्ध होता है, यह जानकर परिज्ञा के द्वारा उनसे निवृत्त होना चाहिए। इस प्रकार कर्म को पूर्णरूप से जानकर वह किसी की हिंसा नहीं करता। वह इन्द्रियों का संयम करता है, उनका उच्छृखल व्यवहार नहीं करता। असंयम से उपरत मेधावी पुरुष सब पाप कर्मों का क्षय कर देता है।
सुखदुःखयोविवेकः
सुख-दुःख का विवेक सर्वेषां प्राणिनां जीवितं सुखं च प्रियमस्ति, वधः सब प्राणियों को जीवन और सुख प्रिय है, वध और दुख दुःखं च अप्रियमस्तीति' स्वाभाविकी मनोवृत्तिः निरू- अप्रिय है । यह स्वाभाविक मनोवृत्ति का निरूपण है। सुख-दुःख पिता । सुखदुःखयोः मनोवैज्ञानिकः पक्षश्चायम् । असा- का यह मनोवैज्ञानिक पक्ष है। यह भी अहिंसा का व्यावहारिक वपि समस्ति अहिंसाया व्यावहारिक आधारः । अत एव आधार है । इसीलिए बार-बार कहा गया-'तू जीवों के कर्म-बन्ध वारं वारं उक्तम्- 'भूएहि जाण पडिलेह सातं'', 'दुक्खं और कर्म-विपाक को जान और कर्म-क्षय को देख ।' 'वर्तमान च जाण अदुवागमेस्सं, 'दुक्ख लोयस्स जाणित्ता", अथवा भविष्य में होने वाले दु.खों को जान ।' 'णिज्झाइत्ता पडिलेहित्ता पत्तेयं परिणिव्वाण', 'सव्वेसि . 'पुरुष लोक के दुःख को जानकर उसके हेतुभूत कषाय का पाणाणं सव्वेसि भूयाणं सव्वेसि जीवाणं सव्वेसि परित्याग करे।' सत्ताणं अस्सायं अपरिणिव्वाणं महब्भयं दुक्खं ति 'तुम प्रत्येक प्राणी की शान्ति को जानो और देखो।' बेमि।११
'सब प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के लिए अशान्ति अप्रिय,
महाभयंकर और दुःख है।' अनयोराध्यात्मिकः पक्षः-प्राणिनां सुखं प्रियमस्ति, इन (सुख और दुःख) का आध्यात्मिक पक्ष इस प्रकार हैअतस्तस्य वियोगो न कार्यः । दुःखं च अप्रियमस्ति, प्राणियों को सुख प्रिय है इसलिए उसका वियोग नहीं करना नातस्तस्य संयोगः कार्यः । इष्टवियोगे अनिष्टसंयोगे च चाहिए और दुःख अप्रिय है इसलिए उसका संयोग नहीं करना आर्तध्यानं भवति । ते प्राणिनो न आर्तध्याने निमज्ज- चाहिए । इष्ट का वियोग और अनिष्ट का संयोग होने पर आतनीयाः।
ध्यान होता है। उन प्राणियों को आर्त्तध्यान में निमग्न नहीं करना
चाहिए। अध्यात्मदृष्टया निश्चयनयदृष्टया वा किमस्ति आध्यात्मिक या नैश्चयिक दृष्टि से दुःख क्या है, यह एक दुःखमिति स्वाभाविकी जिज्ञासा। एनां लक्ष्यीकृत्य स्वाभाविक जिज्ञासा है। इसे लक्षित कर भगवान ने कहा-कर्मभगवता प्रोक्तम्-कर्मबन्धोऽस्ति दुःखम् । तत एव जीवो बन्ध दुःख है। उसी के कारण जीव दुःखों के आवर्त का अनुपरिदुःखानामावर्त्तमनुपरिवर्तयति-'असमियदुक्खे दुक्खी १. आयारो, ३।१९। ५. वही, ३४१।
९. वही, ३७७ ॥ २. वही, ३।१८। ६. वही, २०६३,६४ ।
१०. वही, ११२१ ३. वही, ३३३९ । ७. वही, २॥५२॥
११. वही, १११२२। ४. वही, ५३५१ ।
८. वही, ४॥३५॥
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