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________________ अ० २. लोकविचय, उ०५. सूत्र १०५-१०९ अत्र सन्धिपदं विवरवाची दृश्यते । नानापिण्डरतस्यानगारस्य एकत्र पर्याप्ताहारस्य दानं सन्धिर्भवति आसक्तिवृद्ध्यै विवरं भवति । तदानीं केचन भिक्षव एकपिण्डरता आसन् । भगवता महावोरेण आहारगृद्धिप्रमोक्षाय नानापिण्ड ग्रहणस्य व्यवस्था कृता । भाष्यम् १०७ - तादृशं सन्निधि - सन्निचयीकृतमाहारं स्वयं नाददीत नादापयेत् न च आददानं समनुजानी यात् । १०७. से जाइए, णाइआवए, ण समणुजाणइ । सं०-स नाददीत न आदापयेत् न समनुजानीत | वह आसक्ति बढाने वाले आहार को स्वयं ग्रहण न करे, दूसरों से ग्रहण न करवाए और ग्रहण । भाष्यम १०८ पुषादिनिमित्तं यद् विशिष्टभोजनं निष्पादितं स्थापितञ्च तस्य ग्रहणं आमगन्धो विद्यते तेन स मुनिः सर्वं आमगन्ध' - भोजनासक्ति परिग्रहभूतां परिजानीयात्, तथा भोजने अनासक्तः अपरिग्रहीभूतः परिव्रजेत्। १०८. सवामधं परिणाय, निरामगंधो परिव्वए । सं० सर्वामगन्धं परिज्ञाय निरामगंध: परिव्रजेत् । वह सब प्रकार की भोजन की आसक्ति का परित्याग कर अनासक्त रहता हुआ परिव्रजन करे। १२१ यहां 'संधि' शब्द विवरवाची है । अनेक घरों से आहार लेने वाला अनगार यदि एक ही पर से पर्याप्त आहार देता है तो यह संधि है, क्योंकि यह आसक्ति की वृद्धि के लिए 'विवर' है, छिद्र है । 1 , भाष्यम् १०९ - ममत्वमुक्तः अनगारः क्रयविक्रययोः अदृश्यमानो भवति न तत्र प्रवर्तते स आहारार्य किमपि वस्तुजातं न क्रीणाति न क्रापयति, न च क्रीणन्तं समनुजानाति । ऋपविधौ परिग्रहसम्बद्ध तेन अपरि१. निशी दोषपूर्णाहारग्रहणेन चारित्रं आमं अविषमवं भवति इत्युक्तमस्ति 1 उस समय कुछ भिक्षु एक ही घर के आहार में रत रहते थे । भगवान महावीर ने आहार की आसक्ति कम करने लिए अनेक घरों से आहार ग्रहण करने की व्यवस्था की । उम्मोसादीया भावतो अस्संजमो य आमविही अन्नो वि व माएसो जो बाससतं न पुरेति ॥ 'आहाकम्बादि उसामोसा आदिसद्दाओ एसणदोसा उपायणा य दोसा, भणियं च 'सव्वामगंधं परिणाय णिरामगंधी परिव्वए ।' जओ तेहि उग्गमादिदोसे हि पेप्यमाणेहि चारितं अविपक्कं अन्न भणति । असंजमो वि आमविधीए चेव भवति, जतो चरणस्सोवपापकारी कि जो परिसरातापुरितो बरससतं Jain Education International १०६. अदित्समाणे कय-दिक्कए से ण किणे, ण किनावए, किणंत ण समणुजाण । सं०] अश्यमानः क्रयविक्रययोःसन श्रीणीयात् नापयेत् क्रीणन्तं समानीत | - वह क्रय और विक्रय में व्यावृत न हो-स्वयं क्रय न करे, दूसरों से न करवाए और करने वाले का अनुमोदन न करे । अनगार उस प्रकार के सन्निधि और सन्निचित किए हुए बहार को स्वयं न से, दूसरों से न सिवाए और न लेने वाले का अनुमोदन करे। करने वाले का अनुमोदन न करे । । पुत्र आदि के निमित्त जो विशिष्ट भोजन बनाया जाता है, स्थापित किया जाता है, उसको ग्रहण करना 'आमगंध' है इसलिए वह मुनि सभी प्रकार के आमगंध - भोजन की आसक्ति को परिग्रहभूत मानकर उसका परित्याग करे और भोजन में अनासक्त अर्थात अपरिग्रही होकर परिवन करे। जो अनगार ममत्व से मुक्त है, वह क्रय-विक्रय से दूर रहता है, यह उसमें प्रवृत्त नहीं होता। वह आहार के लिए किसी भी वस्तु का स्वयं रूप नहीं करता, ग दूसरे से करवाता है और न रूप करने वाले का अनुमोदन करता है। कप और विक्रम दोनों परिग्रह अतरेता अंतरे मरेतो आमो भण्णति ।' (निशीय भाष्य चूर्णि भाग ३, गा० ४७१६, पृष्ठ ४८५ ) 3 २. १०४ १०८ पर्यन्तं सूत्रेषु कश्चित् सम्बन्धो न परिसभ्यते । सन्धिशब्दस्य निश्चितोऽपि नोपलभ्यते । चण भिक्षाकालः तथा वैकल्पिकरूपेण 'भावसन्धि:' इति अर्थद्वयं दृश्यते । (चूणि, पृष्ठ ७७-७८) १०७ सूत्रे - 'नादद्याद्' इत्युल्लेखोsस्ति, किन्तु कि नादद्याविति नास्ति पूर्वायातम् । ''अणेणितं नारदा' इति व्याख्यातकिन्तु कुत आयतमिवम् ? एतेषां प्रश्नानां सन्दर्भे निर्दिष्टसूत्राणामर्थः चिन्तनीयः प्रतिभाति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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