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आचारांगमाध्यम्
ग्रहस्यानगारस्य तत्र प्रवृत्तिरनिष्टा इति स्वभावा से संबंधित हैं, इसलिए अपरिग्रही अनगार के लिए क्रय-विक्रय की पतितम् । प्रवृत्ति अनिष्टकर होती है, यह इससे स्वयं फलित होता है। ११०. से भिक्खु काणे बलष्णे मायणे यष्णे खणपणे विनयण्णे समयण्णे भावणे, परिग्यहं अममायमाणे कालेाई, अपडणे ।
सं०---स भिक्षुः कालज्ञः बलज्ञः मात्रज्ञः क्षेत्रज्ञः क्षणकज्ञः विनयज्ञः समयज्ञ: भावज्ञः परिग्रहं अममायमानः, काले उत्थायी, अप्रतिज्ञः । वह भिक्षु कालज्ञ, बलज्ञ, मात्रज्ञ, क्षेत्रज्ञ, क्षणज्ञ, विनयज्ञ, समयज्ञ, भावज्ञ, परिग्रह पर ममत्व नहीं करने वाला, काल में उत्थान करने वाला और अप्रतिज्ञ होता है।
भाष्यम् ११० स भिक्षु आहारान्वेषणवेलायां अपरिग्रहं संरक्षन् अनेकेषां वस्तुबोधानामधिकारी भवतीति प्रस्तुतसूत्रे प्रदर्शितमस्ति । यथा
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१. स कालज्ञो भवति यस्मिन् काले यत् कर्त्तव्यं तत् जानाति यो वा यत्र भिक्षाकालः तमपि जानाति काले भिक्षामटतः प्रयत्नः सफलो भवति, अकाले च विफलः । उक्तमस्ति दशर्वकालिके -
अकाले चरसि free का न पहिसि अयाणं च किलामेसि सन्नियेसं च परिहसि ॥'
२. स वलज्ञो भवति - अतिपरिश्रान्तः आहारं भोक्तुं न शक्नोति, तेन स्वबलं दृष्ट्वा आहारोपलब्धये अटति ।
३. स मात्रज्ञो भवति साधारणे काले एषा मात्रा - द्वौ भागौ आहारस्य, एको भागो जलस्य, एकश्च भागो पवनार्थम् ।
ऋतुभवा मात्रा - सर्वत आहारस्य नैका मात्रा भवति, किन्तु भिन्ना भिन्ना ।
वस्तुसम्बद्धा मात्रा - वस्तु वस्तु अपेक्ष्य मात्रा भवति । यथा संतुलिते भोजने मात्राया विवेको दृश्यते
४. स क्षेत्रज्ञो भवति आहारोपलब्धे रुपयुक्तं क्षेत्र जानाति ।
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५. स क्षणज्ञो भवति - आसन्ने भिक्षाक्षणे वक्तव्यं किं वा न वक्तव्यम्' इति जानाति ।
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६. स विनयशो भवति अतिभूमि न गच्छति, इन्द्रियाणि यथाभागं नियोजयति, आभरणानि च न चिरं निरीक्षते ।
गुप्तस्वानानि
१. दसवेआलियं, ५२३५ ।
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वह भिक्षु आहार की अन्वेषणा के समय अपने अपरिग्रह व्रत का संरक्षण करने के लिए अनेक वस्तु तथ्यों का जानकार होता है यह प्रस्तुत सूत्र का प्रतिपाद्य है । जैसे
१. वह भिक्षु कालज्ञ होता है-जिस काल में जो करना होता है, उसे जानता है जिस क्षेत्र में जो भिक्षा काल है उसको भी जानता है । भिक्षा काल में भिक्षा के लिए जाने वाला मुनि अपने प्रयत्न में सफल होता है और अकाल में भिक्षा के लिए जाने वाला मुनि विफल होता है । दशर्वकालिक सूत्र में कहा है
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'भिक्षो ! तुम अकाल में जाते हो, काल की प्रतिलेखना नहीं करते, इसलिए तुम अपने आपको क्लान्त करते हो और सन्निवेश (ग्राम) की निन्दा करते हो ।'
२. वह होता है जो घूमते-घूमते अत्यधिक चक जाता है, वह आहार कर नहीं सकता, इसलिए वह अपने बल को तोलकर आहार की उपलब्धि के लिए परिव्रजन करता है।
३. वह भिक्षु मात्रज्ञ होता है-सामान्यतः आहार की मात्रा यह है -- दो भाग आहार के लिए, एक भाग पानी के लिए और एक भाग पवन के लिए।
ऋतु सम्बद्ध मात्रा - विभिन्न ऋतुओं में आहार की मात्रा एक समान नहीं रहती । वह प्रत्येक ऋतु में भिन्न-भिन्न हो जाती है ।
वस्तु संबद्ध मात्रा -- भिन्न-भिन्न वस्तु की मात्रा भिन्न-भिन्न होती है जैसे संतुलित भोजन की तालिका में मात्रा का विवेक दृष्टिगोचर होता है।
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४. वह भिक्षु क्षेत्रज्ञ होता है-आहार प्राप्ति के उपयुक्त क्षेत्र का जानकार होता है ।
५. वह भिक्षु क्षणज्ञ होता है- भिक्षा का क्षण - अवसर उपस्थित होने पर वह जानता है कि क्या बोलना चाहिए और क्या नहीं बोलना चाहिए।
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६. वह भिक्षु विनयज्ञ होता है अर्थात् आचार तथा अनुशासन का ज्ञाता होता है। वह भिक्षा के लिए घर में प्रवेश कर अतिभूमि-अननुज्ञात भूमि में नहीं जाता (जहां जाना निषिद्ध हो, वहां नहीं
२. विनयः - आचारः अनुशिष्टिर्वा ।
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