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आचारांगभाष्यम् वर्तिभिः मनोवैज्ञानिकर्मनोवत्तीनां विस्तारः कृतः ।
प्रस्तुतसूत्रे सप्तमौलिकमनोवत्तयो निर्दिष्टाः सन्ति । प्रस्तुत सूत्र में सात मौलिक मनोवृत्तियों का निर्देश किया गया मास्लोमहोदयः आदरसम्मानस्याकांक्षामपि मौलिक- है। मनोवैज्ञानिक मास्लो ने आदर-सम्मान की आकांक्षा को भी मौलिक मनोवृत्तिरूपेण स्वीकरोति ।
मनोवृत्ति के रूप में स्वीकार करते हैं। ७. दुःखप्रतिघातहेतुम् --शारीरमानसदुःखनिरसनाय ७. दुःख-प्रतिकार के लिए-शारीरिक और मानसिक दुःखों नानाविधस्य कर्मणः समारम्भो जायते । एतन् के निवारण के लिए नाना प्रकार के कर्मों-प्रवृत्तियों का समारम्भ महत्प्रवृत्तिस्रोतोऽस्ति ।
होता है । यह प्रवृत्ति का महान् स्रोत है। प्रस्तुतसूत्रे हिंसायाः स्रोतोभूतानां प्रेरकतत्त्वानां प्रस्तुत सूत्र में हिंसा के जनक प्रेरक-तत्त्वों की विशद संकलना गंभीरतमा सङ्कलना विद्यते । ११. एयावंति सव्वावंति लोगंसि कम्म-समारंभा परिजाणियव्वा भवंति।
सं०-एयावन्तः सर्वे लोके कर्मसमारम्भाः परिज्ञातव्याः भवन्ति । लोक में होने वाले ये सब कर्म-समारम्भ परिज्ञातव्य होते हैं-जानने और त्यागने योग्य होते हैं।
भाष्यम् ११-पक्षरूपेणैतत्सूत्रं पूर्व निर्दिष्टमस्ति सूत्र १/७ में इस सूत्र का पक्षरूप में निर्देश किया गया है। (१७)। इदानीं तदेव निगमनरूपेण निर्दिश्यते । अज्ञात- अब वही सूत्र निगमनरूप से निर्दिष्ट किया जा रहा है । कर्म-समारम्भ कर्मसमारम्भस्रोतसां न कर्मपरिज्ञा भवति, अत एव पूर्व के स्रोतों को जाने बिना कर्म-परिज्ञा (कर्म-प्रत्याख्यान) नहीं होती, कर्मस्रोतांसि उल्लिखितानि । प्रस्तुतसूत्रे च तज्ज्ञानपूर्वकं इसलिए पहले कर्म-समारम्भ के स्रोतों का उल्लेख किया गया है। कर्मसमारम्भपरिज्ञायाः निर्देशः, तेन नात्र पुनरुक्तिरा- प्रस्तुत सूत्र में कर्म-समारम्भ की ज्ञानपूर्वक परिज्ञा (प्रत्याख्यान) का शंकनीया।
निर्देश है, अतः यहां पुनरुक्ति की आशंका नहीं करनी चाहिए। १२. जस्सेते लोगसि कम्म-समारंभा परिणाया भवंति, से हु मुणी परिण्णाय-कम्मे ।-त्ति बेमि ।
सं०-यस्यैते लोके कर्मसमारंभाः परिज्ञाता भवंति स खलु मुनिः परिज्ञातकर्मा ।- इति ब्रवीमि । लोक में होने वाले ये कर्म-समारंभ जिसके परिज्ञात होते हैं, वही परिज्ञातकर्मा—कर्मत्यागी मुनि होता है। ऐसा मैं कहता हूं।
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भाष्यम् १२-कर्मशब्दस्य अनेके अर्था भवन्ति । अत्र कर्म शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ प्रस्ततोऽर्थोऽस्ति क्रिया। यस्य कर्मसमारम्भाः प्रत्याख्याता है-क्रिया। जिसके कर्म-समारम्भ प्रत्याख्यात होते हैं, वह परिज्ञातभवन्ति, स परिज्ञातकर्मा मुनिर्भवति । गीतायां काम- कर्मा-कर्मत्यागी मुनि होता है । गीता में काम-संकल्प-वजित समारंभों संकल्पवजितानां समारम्भाणां प्रशस्तता प्रतिपादिता- की प्रशस्तता प्रतिपादित की गई है-- यस्य सर्वे समारंभाः, कामसंकल्पवजिताः ।
'जिसके संपूर्ण कर्म-समारम्भ कामना और संकल्प से रहित ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं, तमाहुः पण्डितं बुधाः ॥ होते हैं, तथा जिसके समस्त कर्म (प्रवृत्ति) ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा भस्म
हो गए हैं, उसको ज्ञानी लोग पंडित कहते हैं।' भगवतो महावीरस्य एष नयोऽत्र वर्तते-यथा यथा इस विषय में भगवान् महावीर की दृष्टि यह है-जैसे-जैसे कषायांशस्य अल्पता जायते, तथा तथा कर्मण: शोधनं कषाय का अंश अल्प होता है वैसे-वैसे कर्म का शोधन और निरोध निरोधश्च संभवति । यः समारंभ: कामसंकल्पवजितो होता चला जाता है। जो समारम्भ काम और संकल्प से रहित होता भवति. स कषायांशस्याल्पतयैव भवति इति द्वयोः है वह कषायांश की अल्पता से ही होता है। इसलिए इन दोनों प्रवचनयोर्नास्ति कश्चिद् भेदः ।
आचारांग और गीता के प्रतिपादनों में कोई अन्तर नहीं है। मुणी-मुनिरितिपदं ज्ञानार्थवाचकं विद्यते-मुणेइ मुनि-'मुनि' यह पद ज्ञान के अर्थ का वाचक है । जो त्रिकाला1. Maslow, A.H. 'Motivation and Personality'. २. गीता, ४१९ । N.Y. Harper.
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