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अ० १. स्त्रपरिज्ञा, उ० १,२. सूत्र ११-१३ जगं तिकालावत्थं तेण मुणी।' गीतायां एष पण्डित- वस्थित जगत् को जानता है वह मुनि है (मुण धातु का अर्थ जानना शब्देनाभिहितोऽस्ति ।
है)। गीता में इसे पण्डित शब्द से अभिहित किया गया है। परिण्णायकम्मे–ज्ञानी पूरुषः कर्मसमारम्भस्य परि- परिज्ञातकर्मा–ज्ञानी पुरुष कर्म-समारम्भ के परिणाम को णामं ज्ञात्वैव ततो विरमति, अत एव स परिज्ञातकर्मा जान लेने के बाद ही उससे विरत होता है, इसलिए वह 'परिज्ञातइत्युच्यते। चूणौं स्पष्टमिदम्-परिण्णायकम्मो णाम कर्मा' कहलाता है । चूणि में यह स्पष्ट निर्दिष्ट है कि परिज्ञातकर्मा वह जाणिऊण विरतो।
है जो ज्ञानपूर्वक विरत होता है। ___ इति ब्रवीमि भगवान् महावीरः गणधरान् प्रति ऐसा मैं कहता हूं-इस वाक्यांश का तात्पर्य है-भगवान् वक्ति अथवा सुधर्मा जम्बूस्वामिनं प्रति वक्ति-यद् महावीर अपने गणधरों को संबोधित कर कहते हैं अथवा सुधर्मास्वामी अनुभूतं मया तत् सर्वेषां हिताय ब्रवीमि ।
जम्बूस्वामी को संबोधित कर कहते हैं-मैंने जो साक्षात् अनुभव किया है, उसका मैं सभी प्राणियों के हित के लिए प्रतिपादन कर रहा हूं।
बीओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक
१३. अट्टे लोए परिजुण्णे, दुस्संबोहे अविजाणए।
आतंः लोकः परिजीर्णः दुःसंबोधः अविज्ञायकः । लोक-मनुष्य पीड़ित है, वह परिजीर्ण है। वह सत्य को सरलता से समझ नहीं पाता, अतः अज्ञानी बना रहता है।
भाष्यम १३—कीदक पुरुषो हिंसायां प्रवर्तते इति- किस प्रकार का पुरुष हिंसा में प्रवृत्त होता है, इस जिज्ञासा के जिज्ञासायां सत्यां भगवता प्रतिपादितम्-अस्मिन् जगति संदर्भ में भगवान् ने प्रतिपादन किया- इस संसार में आर्त, परिजीर्ण, आर्तः परिजीर्णः दुःसंबोधः अविज्ञायकश्च पुरुषः हिंसायां दुःसंबोध और अविज्ञायक पुरुष हिंसा में प्रवृत्त होता है। प्रवर्तते।
आ _विषयकषायादिमनोदोषैः पीडितः । आर्त का अर्थ है-विषय, कषाय आदि मानसिक दोषों से सचित्तादिद्रव्यरसंप्राप्तः प्राप्तवियूक्तर्वा य आत्तः स पीडित । उसके दो प्रकार हैं-द्रव्य आर्त और भाव आर्त । सचित्त द्रव्यातः । क्रोधादिभिरभिभूतो भावार्तः।।
आदि द्रव्यों के न मिलने से अथवा प्राप्त द्रव्यों का वियोग होने पर जो आर्त बनता है, वह द्रव्य आत्तं है । क्रोध आदि से अभिभूत व्यक्ति भाव
मात्तं कहलाता है। परिजीर्णः-अभावग्रस्त:-पदार्थमभिलषमानोऽपि
परिजीर्ण का अर्थ है अभावग्रस्त अर्थात पदार्थ को पाने की तल्लाभशून्यः ।
अभिलाषा रखता हुआ भी उससे वंचित रहने वाला। दुस्संबोधः-यः प्रयत्नशतेनापि बोदधं न शक्यते ।
दुःसंबोध का अर्थ है-सैकड़ों प्रयत्न करने पर भी बोध प्राप्त
करने में असमर्थ मनुष्य । अविज्ञायकः-तत्त्वानभिज्ञः।
अविज्ञायक का अर्थ है-तत्त्व से अनभिज्ञ । पण कार्यकारणभावोऽपि दश्यः-आतः परिजीर्णो इनमें कार्य-कारण भाव भी है जो आर्त होता है, वह परिभवति । परिजीर्णः मन्दविज्ञानत्वाद् दुस्संबोधो भवति। जीर्ण होता है । परिजीर्ण मन्दज्ञान के कारण दुःसंबोध होता है।
३. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा १२५१, वृत्ति ।
१. आधारांग पूणि, पृष्ठ १७ । २. वही, पृष्ठ १७ ।
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