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________________ ३२ आचारांगभाष्यम् दुस्संबोधस्तत्वज्ञानाभावे अविज्ञायको भवति ।' दुःसंबोध तत्त्वज्ञान के अभाव में अविज्ञायक बना रहता है। १४. अस्सि लोए पव्व हिए। सं०-अस्मिन् लोके प्रव्यथितः । अज्ञानी मनुष्य इस लोक में व्यथा का अनुभव कर रहा है। भाष्यम् १४-उक्तलक्षणपुरुषोऽस्मिन् लोके व्यथामनु- उपर्युक्त लक्षण संपन्न पुरुष इस लोक में व्यथा का अनुभव भवति । स यदभिलषति तद् हिंसामृते नाप्नोति, तेन स करता है । हिंसा के बिना उसको अभीप्सित प्राप्त नहीं होता। इसलिए हिंसाकर्मणि प्रवर्तते। वह हिंसात्मक प्रवृत्ति में प्रवृत्त होता है । १५. तत्थ तत्थ पुढो पास, आतुरा परितार्वेति । सं०-तत्र तत्र पृथक् पश्य, आतुराः परितापयन्ति । तू देख, पृथक् पृथक् भावों से आतुर मनुष्य स्थान-स्थान पर पृथ्वीकायिक प्राणियों को परिताप दे रहे हैं। भाष्यम् १५–भगवान् शिष्यं आमन्त्र्य वक्ति-त्वं भगवान् शिष्य को संबोधित कर कहते हैं-तू स्वयं देख ! स्वयं पश्य । तेषु तेषु कार्येषु गृहादिनिमित्तं पृथक् पृथक् आर्त, परिजीर्ण आदि भिन्न-भिन्न भावों से आतुर पुरुष ही गृह आदि आर्त्तादिभावैरातूराः पुरुषा एव सन्ति हिंसायां के निमित्त अनेक कार्य करते हुए हिंसा में प्रवृत्त होते हैं। मृत्यु के भय प्रवर्तमानाः। मरणभयातुरा 'जीवो जीवस्य जीवन' से आतुर मनुष्य 'एक जीव का जीवन दूसरे जीव पर आश्रित है'-यह मिति सिद्धान्तं सम्मुखीकृत्य पृथ्वीजीवान् परितापयन्ति, मानकर पृथ्वीकायिक जीवों को परिताप देते हैं और विषयों की विषयाभिलाषातुराश्च विषयसेवनार्थम् । अभिलाषा से आतुर मनुष्य विषय-सेवन के लिए पृथ्वीकायिक जीवों को परिताप देते हैं, उनका हनन करते हैं। १६. संति पाणा पुढो सिया। सं०-संति प्राणाः पृथक् श्रिताः । पृथ्वीकायिक प्राणी पृथक्-पृथक् शरीरों में आश्रित हैं। भाष्यम् १६-तावत् हिंसाज्ञानं कर्तुं दुश्शकं यावज्जीव- जब तक जीव का बोध नहीं होता, तब तक हिंसा का ज्ञान बोधो न स्यात् । अहिंसाविषयेऽपि एष एव सिद्धान्तस्तेनादौ करना शक्य नहीं है । यही सिद्धांत अहिंसा के विषय में है। इसलिए जीवनिर्णयः कर्तव्यः । भगवता महावीरेण षड्जीव- सबसे पहले जीव के विषय में ज्ञान करना चाहिए। भगवान् महावीर निकायाः प्रज्ञप्ता:-पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयस्त्रसाश्च । ने छह जीव-निकायों ---पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु, वनस्पति और त्रसप्रस्तुतोद्देशके पृथ्वीकायिकजीवानां हिंसापरिज्ञा की प्ररूपणा की है। प्रस्तुत उद्देशक में पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा की निर्दिष्टास्ति । पृथिव्यामपि प्राणिनः सन्ति, एषास्ति परिज्ञा का निर्देश किया गया है । 'पृथ्वी में भी जीव है'--यह प्रतिज्ञा प्रतिज्ञा। 'पृथ्वी सजीवा वर्तते' नाभिमतमासी- (पक्ष-स्थापना) है। 'पृथ्वी सजीव है' यह अन्यतीपिकों का अभिमत दिदमन्येषां तीथिकानाम् । एष नवीन एव पक्ष: नहीं था। भगवान महावीर ने इस नये पक्ष की स्थापना की। १. शीलांकवत्तौ 'अस्सि लोए' इतिपाठस्य अर्थः-अस्मिन दुस्संबोधत्वाच्च अविज्ञायको भवति । अस्मिन् पृथ्वीकायपृथ्वीकायलोके:- इति कृतोऽस्ति (आ. व. पत्र ३२) । लोके प्रव्यथिते सर्वारम्भस्य तदाश्रयत्वात् आतुरास्तत्र तत्र एतं सम्मुखीकृत्य यदि चिन्तयामस्तदा प्रथमत्रवति 'लोक' इमं पृथ्वीकायलोकं परितापयन्ति । पदस्यापि 'पृथ्वीकायलोक' इत्यर्थः कर्तुं शक्यः । ततः । असो व्याख्यानयोऽपि समीचीनः प्रतिभाति । यदीम अपि सत्रे (१३,१४) एवं व्याख्यातव्ये भवतः-अयं पृथ्वी व्याख्यानयं स्वीकुर्मस्तवा 'संति पाणा पुढोसिया' (११६) कायलोकः कर्मणा आतः. औदयिकमावेन परिजीर्णो इत्यस्य द्वितीयोऽर्थः पृथक् श्रिताः प्राणिनः इति अधिभवति । वृत्ती लिखितमस्ति-यावानातः स सर्वोऽपि संगच्छते। परियनो नाम परिपेलबो निस्सारः (आ. व. पत्र ३२) २. बसवेआलियं, ४।३। नया आतत्वात् परिजीर्णत्वाच्चासौ लोक: दुस्संबोधः Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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