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अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० २. सूत्र १६-१६
स्थापितोऽभूत् । 'पुढो सिया' इति पृथक श्रिताः प्राणिनः 'पुढो सिया' अर्थात् पृथ्वीकायिक प्राणी पृथक्-पृथक् शरीरों में आश्रित सन्ति । पृथगिति भिन्न भिन्नशरीरेषु, श्रिताः-सम्बद्धाः, हैं। यहां पृथक् का अर्थ है-भिन्न-भिन्न शरीरों में तथा श्रित का अर्थ प्रत्येकशरीरिण इति यावत् ।' पुढोसिया- पृथ्वीश्रिताः है— संबद्ध । पृथ्वीकायिक प्राणी 'प्रत्येकशरीरी' होते हैं। अर्थात् प्राणिनः सन्ति इत्यर्थोऽपि वृत्तौ सम्मतोऽस्ति । प्रत्येक जीव का पृथक्-पृथक् शरीर होता है। वृत्ति में 'पुढोसिया' का
यह अर्थ भी सम्मत है-पृथ्वी के आश्रित प्राणी हैं। प्रस्तुताध्ययने मनुष्यस्य विवक्षामकृत्वा पूर्व प्रस्तुत अध्ययन में मनुष्य की विवक्षा न कर पहले पृथ्वी आदि पृथिव्यादिप्राणिनां विवक्षा किमर्थं इतिजिज्ञासायामेतद् प्राणियों की विवक्षा क्यों की गई? इस जिज्ञासा के उत्तर में यह कहा वाच्यमस्ति-आचाराङ्गस्य केन्द्रीयं तत्त्वमस्ति आत्मा। गया है-आचारांग का केन्द्रीय तत्त्व मात्मा है। इसका मुख्य प्रस्थान अस्य मुख्यं प्रस्थानमस्ति सर्वेषामात्मनां समता । यादृश (प्रतिपाद्य) है सभी आत्माओं की समता। जैसी आत्मा पृथ्वीकायिक आत्मा पृथ्वीकायिकजीवानां वर्तते तादृश एव आत्मा जीवों की है वैसी ही आत्मा मनुष्य की है। आत्मा के स्वरूप में कोई अस्ति मनुष्यस्य । आत्मनः स्वरूपे नास्ति कोऽपि भी भेद नहीं है । भेद है केवल उनके ज्ञानावरण आदि कर्मों के तारतम्य भेदः, केवलमस्ति तेषु ज्ञानावरणादीनां तारतम्यकृतो का। भेदः ।
१७. लज्जमाणा पुढो पास ।
सं०-लज्जमानान् पृथक् पश्य । तू देख, प्रत्येक संयमी साधक हिंसा से विरत हो संयम का जीवन जी रहा है।
भाष्यम् १७-हिंसा असंयम इतिकृत्वा ये लज्जन्ते- हिंसा असंयम है, ऐसा मानकर जो लज्जित होते हैं अर्थात् हिंसातो विरमन्ति तान् त्वं प्रत्येकं पश्य । केचिद् गृह- हिंसा से विरत होते हैं उन एक-एक को तुम देखो । गृहत्याग करके त्यागं कृत्वा पृथ्वीकायिकजीवानां हिंसातो विरमन्ति, न कुछेक साधक ही पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा से विरत होते हैं, सब तु सर्वे । एतदेवाग्रिमसूत्रे सूचितमस्ति ।
नहीं । अग्रिम सूत्रों में यही सूचित किया गया है। १८. अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा।
सं०-अनगाराः स्म इत्येके प्रवदन्तः । और तू देख, कुछ साधु 'हम गृहत्यागी हैं'-यह निरूपित करते हुए भी गृहवासी जैसा आचरण करते हैं-पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करते हैं।
भाष्यम् १८-केचिद् 'वयं अनगाराः स्म' इति कुछ संन्यासी 'हम गृहत्यागी हैं'-यह कहते हुए भी पृथ्वीकायिक प्रवदन्तोऽपि पृथ्वीकायिकजीवानां हिंसातो विरता न जीवों की हिंसा से विरत नहीं होते। इस प्रसंग में सूत्रकार ने आश्चर्य भवन्ति । अत्र सूत्रकारेण आश्चर्यव्यञ्जना कृता-यदि की अभिव्यञ्जना की है-यदि गृहस्थ पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा से गृहस्थाः पृथ्वीकायिकजीवानां हिंसातो न विरमन्ति न विरत नहीं होते हैं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है, किन्तु यदि तदाश्चर्यकारणम्, किन्तु अनगारा अपि ततो न विरता अनगार उससे विरत नहीं होते हैं तो महान् आश्चर्य है । उनको संयमएतन् महदाश्चर्यम् । तैस्तु संयममयकर्मणोपि यथाशक्यं पूर्ण प्रवृत्ति की भी यथाशक्य गुप्ति करनी चाहिए। गुप्तिः साधनीया। १६. जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहिं पुढवि-कम्म-समारंभेणं पुढवि-सत्थं समारंभेमाणे अण्णे वणेगरूवे पाणे विहिंसति ।
१. अंगसुत्ताणि २, भगवई १९१५ : सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच पुढविक्काइया, एगयओ साधारणसरीरं बंधंति, बंधित्ता तओ पच्छा आहारेति वा परिणामेंति वा सरीरं वा बंधंति ? नो इण? सम४। पुढविक्काइया पत्तयाहारा पत्तेय
परिणामा पत्तेयं सरीरं बंधंति, बंधित्ता तओ पच्छा आहारेंति वा परिणामेंति वा सरीरं वा बंधति । २. द्रष्टव्यानि समताप्रतिपादकानि सूत्राणि-आयारो, १२८, ३०, ५१-५३, ८२-८४, ११०-११३, १३७-१३९, १६१
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