SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ० ३. शीतोष्णीय, उ० १-२. सूत्र २०-२६ १७१ भाष्यम २३-पुरुष: द्विविधो भवति-रागचरितः पुरुष दो प्रकार के होते हैं-राग का आचरण करने वाले और द्वेषचरितश्च । तत्र रागी रागेण दृश्यते, द्वेषी द्वेषेण द्वेष का आचरण करने वाले । रागी राग से पहचाना जाता है और दृश्यते । वीतरागः पुरुषः एताभ्यां द्वाभ्यामपि न दृश्यते। द्वेषी द्वेष से पहचाना जाता है। वीतराग पुरुष इन दोनों से नहीं तस्य न रागजनिताः प्रवृत्तयः प्रत्यभिज्ञानं भवन्ति, न च पहचाना जाता ! उसकी पहचान न रागयुक्त प्रवृत्तियों से और न द्वेषजनिताः । अत एव स एताभ्यामन्ताभ्यां अदृश्यमानो द्वेषजनित प्रवृत्तियों से होती है। इसलिए वह इन दोनों अन्तों से भवति । अदृश्यमान होता है। अन्तः--स्वभावो निश्चयो वा। अन्त का अर्थ है-स्वभाव अथवा निश्चय । २४. तं परिणाय मेहावी। सं०-तं परिज्ञाय मेधावी। राग-द्वेष अहितकर हैं, यह जानकर मेधावी उनका अपनयन करे। भाष्यम् २४.--स्वपनमहिताय भवति जागरणञ्च सोना अहित के लिए होता है और जागना हित के लिए यह हिताय इति परिज्ञाय मेधावी जागरणार्थं रागद्वेषापनो- जानकर मेधावी मुनि जागरण के लिए अथवा राग-द्वेष के अपनयन के दाय वा प्रयतेत । लिए प्रयत्न करे। २५. विदित्ता लोगं, वंता लोगसण्णं से मइमं परक्कमेज्जासि । -त्ति बेमि । सं०-विदित्वा लोक वान्त्वा लोकसंज्ञां स मतिमान पराक्रमेत । -इति ब्रवीमि । मतिमान पुरुष विषयलोक को जानकर, लोकसंज्ञा-विषयासक्ति को त्याग कर संयम में पराक्रम करे। ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् २५–मतिमान् जागरणदिशायां पराक्रमेत । मतिमान् पुरुष जागरण की दिशा में पराक्रम करे । इसके लिए एतत्कृते लोकस्य ज्ञानं लोकसंज्ञायाश्च परित्यागः लोक का ज्ञान और लोकसंज्ञा का परित्याग अपेक्षित होता है। जब अपेक्षामर्हति । यावत् कषायलोकस्य तद्विपाकस्य च तक कषायलोक तथा उसके विपाक का सम्यक् अवबोध नहीं होता, सम्यक् परिज्ञानं नहि भवति, तावत् अस्यां दिशायां तब तक इस दिशा में पराक्रम नहीं किया जा सकता। लोकसंज्ञा का पराक्रमोन घटते । लोकसंज्ञा--लोकप्रवाहसम्मता विष- अर्थ है-लोकप्रवाह सम्मत विषयों की ओर दौड़ने की मनोवृत्ति । याभिमुखता यावत् वान्ता न स्यात् तावत् कुतो जब तक वह छोड़ी नहीं जाती तब तक जागरण की दिशा में प्रयत्न जागरणाभिमुखः प्रयत्नो भवेत् ?' कहां से हो सकता है ? बीओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक २६. जातिं च वुट्टि च इहज्ज ! पासे। सं०-जाति च वृद्धि च इह आर्य ! पश्य । हे आर्य! तू संसार में जन्म और जरा को देख । १. तुलना-अंगसुत्ताणि 1, सूयगडो २०११५४ : जे खलु गारत्या सारंमा सपरिग्गहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंमा सपरिग्गहा दुहमओ पावाइं कुव्वंति, इति संखाए दोहि वि अंतेहि अविस्समाणो। २. तुलना-आयारो १५९ । Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy