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________________ १६४ २. लोयंसि जाण अहियाय दुक्तं । सं० – लोके जानीहि अहिताय दुःखम् । तुम जानो, इस लोक में दुःख - अज्ञान अहित के लिए होता है। माध्यम् २ सुप्तस्य अज्ञानं मोह-स्वभावविकृतिर्वा प्रवर्धते । तद् दुःखहेतुत्वाद् दुःखं अथवा दुःखं कर्म ।' तच्च लोके अहिताय भवति इति त्वं जानीहि । हिंसायां परिग्रहे च प्रवृत्तस्य इहैव लोके वधबन्धादयः अहितकराः परिणामाः दृश्यन्ते । ३. समयं लोगस्स जाणित्ता, एत्थ सत्थोवरए । सं०- समतां लोके ज्ञात्वा अत्र शस्त्रोपरतः । 'सब आत्माएं समान हैं' -- यह जानकर पुरुष समूचे जीव-लोक की हिंसा से उपरत हो जाए। भाष्यम् ३ - लोकस्य - जीवसमूहस्य समतां ज्ञात्वा मुनिः शस्त्रपरतो भवति । यैः यैर्हेतुभिः जीवानां वधो जायते, ते शस्त्रं इत्युच्यन्ते । अहिंसकः अपरिग्रहश्च सर्वशस्त्रेभ्य उपरतो भवति । अत्र अहिंसाया विषये समतापदस्य वाच्यं आत्मतुला भवति । अपरिग्रहस्य सन्दर्भे समतापदस्य वाच्यमस्ति लाभालाभादिषु समभावः । भाष्यम् ४--यस्य पुरुषस्य जीवने अपरिग्रहो निष्ठां गच्छति स आत्मवान् भवति । तात्पर्यमिदम्-शब्दादयः पौद्गलिकाः, आत्मस्वरूपञ्च चैतन्यम् । यस्य इमे शब्दादयः अभिसमन्यागताः सम्यग् उपलब्धा: भवन्ति - एते चैतन्याद् भिन्नाः सुखदुःखात्मकवन्ध हेतवश्च' इति ज्ञ-परिज्ञया प्रत्याख्यान- परिज्ञया च परिज्ञाता भवन्ति स आत्मवान् ज्ञानवान् वेदवान्, धर्मवान् ब्रह्मवान् भवति । प्रस्तुतसूत्रं भेदविज्ञानं प्रतिपादयति । चैतन्यपदार्थयोरभेदानुभूय एव परिग्रहे मूर्च्छा जायते । तयोर्भेदानु भूत्या अपरिग्रहः सिद्धयति । तस्मिन् सिद्धे एव आत्मा १. (क) आचारांग पूणि, पृष्ठ १०५ खमिति कम्म सारीराति वा । (ख) आचारांग वृति पत्र १२९ दुःखद् दुःखम् सुप्त व्यक्ति का अज्ञान बढता है अथवा मोह स्वभाव की विकृति बढती है। वह दुःख का हेतु होने के कारण दुःख है । अथवा दुःख है कर्म । 'वह संसार में अहित के लिए होता है', ऐसा तुम जानो । जो पुरुष हिंसा और परिग्रह में प्रवृत्त है, उसे इसी जन्म में वध, बंधन आदि अहितकारी परिणामों को भोगना पड़ता है । ४. जस्सिमे सहा य हवाय गंधा य रसा य फासा य अभिसमन्नागया भवंति से आयवं नाणवं वेयवं धम्मवं वंभवं । 7 सं० – यस्येमे शब्दाश्च रूपाणि च गन्धाश्च रसाश्च स्पर्शाश्च अभिसमन्वागताः भवन्ति स आत्मवान् ज्ञानवान् वेदवान धर्मवान् ब्रह्मवान् । जो पुरुष इन-शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्शो को भली-भांति जान लेता है—उनमें राग-द्वेष नहीं करता, वह आत्मवान्, ज्ञानवान्, वेदवान् धर्मवान् और ब्रह्मवान् होता है। Jain Education International आचारांगभाष्यम् 'लोक' का अर्थ है – जीव- समूह । 'सभी प्राणियों की आत्मा समान है' यह जानकर मुनि हिंसा से उपरत हो जाता है । जिन-जिन हेतु से जीवों का वध होता है, वे सारे हेतु शस्त्र कहलाते हैं । अहिंसक और अपरिग्रही व्यक्ति सभी शस्त्रों से उपरत होता है। यहां अहिंसा के संदर्भ में समता का अर्थ है-आत्मतुला सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान समझना और अपरिग्रह के संदर्भ में समता का अर्थ हैलाभ-अलाभ आदि द्वन्द्वों में समभाव रखना । जिस पुरुष के जीवन में अपरिग्रह की भावना परिपूर्णरूप से आत्मसात् हो जाती है, वह पुरुष आत्मवान् होता है। इसका तात्पर्य है कि आत्मवान् पुरुष में यह संबोध जाग जाता है कि शब्द आदि विषय पौद्गलिक हैं और आत्मस्वरूप चैतन्यमय है । जिसको ये शब्द आदि विषय अभिसमन्वागत - सम्यग् उपलब्ध हो जाते हैं अर्थात् ये सब चैतन्य से भिन्न हैं तथा सुख-दुःखरूप बंधन के हेतु हैं— इस रूप में वेश-परिक्षा से तथा प्रत्याख्यान- परिशा से परिक्षात हो जाते हैं, वह आत्मवान् ज्ञानवान् वेदवान, धर्मवान् और ब्रह्मवान होता है। प्रस्तुत सूत्र में भेदविज्ञान का प्रतिपादन है । आत्मा और पदार्थ अथवा चैतन्य और पुद्गल की अभेदानुभूति से ही परिग्रह में मूर्च्छा पैदा होती है। उनकी भेदानुभूति से अपरिग्रह सिद्ध होता है । अज्ञानं मोहनीयं वा । २. न परिग्रहः अस्ति यस्य स अपरिग्रहः, अपरिग्रहीति यावत् । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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