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________________ २३२ स्थितवन्तः, सत्यम्' – सम्यक्त्वं संयमो वा, तस्याराधकाः सर्वास्वपि दिक्षु वर्तन्ते इति तात्पर्यम् । तेषां पूर्व विशेषणविशिष्टानां ज्ञानं साधयिष्यामः कथयिष्यामः श्लाघिष्यामहे वा । ५३. किमस्थि उपाधी पासगस्स ण विज्जति ? गत्थि । त्ति बेमि । सं० - किमस्ति उपाधिः पश्यकस्य न विद्यते ? नास्ति । इति ब्रवीमि । क्या व्रष्टा के कोई उपाधि होती है या नहीं होती ? नहीं होती। ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् ५३ - द्रष्टव्यम् -- ३१८७ भाष्यम् । १. (क) आचारांग भूमि, पृष्ठ १५३ विवर्ण स अहवा सच्चोति संजमो वृत्तो, तित्थगरमासियं वा सम्मतं वा भवे सच्चं । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १७७ : सत्यमिति ऋतं तपः संयमो वा । Jain Education International आचारांगमाध्यम् अवस्थित हैं। इसका तात्पर्य है कि सत्य अर्थात् सम्यक्त्व या संयम के आराधक सभी दिशाओं में हैं। उन पूर्व निर्दिष्ट विशेषणों से विशिष्ट पुरुषों के ज्ञान का हम कथन करेंगे, उसकी श्लाघा करेंगे । देखें-- ३१८७ का भाष्य । २. आचारांग चूर्ण, पृष्ठ १५३ : न सम्मद्दसणं मुद्दता अन्नं लोगेऽवि कज्जं निच्वं अत्थि, सम्मं नाणं च तवसंजमे विरायति । ३. वही, पृष्ठ १५३ साहित्यायो में भणित अहवा साहित्सामि पसिस्सामि पविसामि । For Private & Personal Use Only इमो www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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