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आचारांगभाष्यम् १०. अहियासए सया समिए, फासाइं विरूवरूवाइं। अरइं रइं अभिभूय, रीयई माहण अबहवाई॥
सं०-- अधिसहते सदा समितः, स्पर्शान् विरूपरूपान् । अरति रतिमभिभूय, रीयते माहनः अबहुवादी । उन्होंने अपनी समीचीन प्रवृत्ति के द्वारा नाना प्रकार के स्पर्शों को झेला । वे संयम में होने वाली अरति और असंयम में होने वाली रति को अभिभूत कर चलते थे । वे प्रायः मौन रहते थे--आवश्यकता होने पर ही कुछ-कुछ बोलते थे।
भाष्यम् ९,१०-इह द्विविधानां उपसर्गाणां संसूचनं यहां दो प्रकार के उपसर्गों का सूचन किया गया हैकृतमस्ति-ऐहलौकिकाः पारलौकिकाश्च । तत्र मनुष्य- इहलौकिक और पारलौकिक । मनुष्यों द्वारा कृत उपसर्ग इहलौकिक कृता उपसर्गाः ऐहलौकिकाः, तिर्यग्भिः कृताश्च पार- और तिर्यञ्चों द्वारा कृत उपसर्ग पारलौकिक कहलाते हैं । लौकिका उच्यन्ते।' ___अनुलोमान् प्रतिलोमान् उपसर्गान् सहमानस्य कर्म- जो साधक अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को सहन करता है निर्जरा भवति, असहमानस्य च कर्मबन्धो जायते इत्या- उसके कर्म-निर्जरा होती है। जो उन उपसर्गों को सहन नहीं करता लम्बनं कृत्वा भगवता सर्व सोढम् । अनुलोमप्रतिलोमैः उसके कर्म-बंध होता है-यह आलंबन लेकर भगवान् ने सब प्रकार के उपसर्गः संयमे अरतिः असंयमे च रतिरुत्पद्यते। उपसर्ग सहन किए । अनुलोम और प्रतिलोम उपसगों से संयम में तयोरपि सद्ध्यानेन अभिभवः कृतः। स अबहवादी अरति और असंयम में रति उत्पन्न होती है। भगवान् ने सद्ध्यान के आसीत् । जीवनयात्रानिर्वाहयोग्यां वाचं विहाय भगवता माध्यम से रति और अरति का अभिभव किया। भगवान् बहुत कम प्रायो मौनमासेवितम् ।
बोलते थे । जीवन-यात्रा के निर्वहन योग्य वाणी को छोड़कर भगवान्
प्रायः मौन रहते थे। अनयोरनुसारी उपदेश:
इन दोनों (९,१०) का संवादी उपदेश है'उवेहमाणो सद्द-रूवेसु अंजू....... २
'शब्द और रूप की उपेक्षा करने वाला ऋजु-संयमी होता है।' 'जस्सिमे सद्दा य रूवा य गंधा य रसा य फासा य अभि- 'जो पुरुष इन--- शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्शों को भलीभांति समन्नागया भवंति, से आयवं नाणवं वेयवं धम्मवं बंभवं।"
जान लेता है उनमें राग-द्वेष नहीं करता, वह आत्मवान्, ज्ञानवान्,
वेदवान्, धर्मवान् और ब्रह्मवान् होता है।' 'अभिभूय अदक्खू, अणभिभूते पमू निरालंबणयाए।" ___'पातिकर्मों को अभिभूत कर महावीर ने देखा कि जो बाधाओं
से अभिभूत नहीं होता, वही निरालंबी होने में समर्थ होता है।'
११. स जहिं तत्थ पुच्छिसु, एगचरा वि एगदा राओ। अन्वाहिए कसाइस्था, पेहमाणे समाहिं अपडिण्णे ॥
सं०-स जनैः तत्र अपृच्छयत, एकचराः अपि एकदा रात्रौ । अव्याहृते अकषायिषुः, प्रेक्षमाणः समाधिमप्रतिज्ञः । (भगवान् एकान्त में ध्यान करते, तब) कुछ अकेले घूमने वाले लोग, कभी-कभी रात्रि में पारदारिक लोग आकर पूछते-'तुम सूने घर में क्या करते हो? भगवान् उन्हें उत्तर नहीं देते, तब वे रुष्ट होकर दुर्व्यवहार करते । ऐसा होने पर भी भगवान समाधि में लीन रहते, उनके मन में प्रतिकार का कोई संकल्प नहीं उठता।
भाष्यम् ११–कस्त्वम् ? कुत आगतः ? किमर्थमत्र- तुम कौन हो? कहां से आए हो? यहां क्यों खडे हो? इस स्थितोऽसि ? अस्मिन् शून्यगृहे किं करोषि ? इत्यादीन् सूने घर में क्या कर रहे हो ? इस प्रकार एकचर-अकेले घूमने वाले अनेकान् प्रश्नान् अप्राक्षुः एकचराः- उद्मामकाः पार- पारदारिक आदि मनुष्य अनेक प्रश्न पूछते । पूछने पर भी भगवान दारिकादयः। पृच्छायां कृतायां भगवान् मौनमेव मौन रहते । उससे रुष्ट होकर वे भगवान् को गालियां देते, कटुवचन १. चूर्णी अनयोः पदयोाख्या नयद्वयेन कृतास्ति-तत्थ
अणुलोमे परलोमे य करेंति जहा अभयसुदरिसणस्स । इहलोइयाई माणुस्सग्गा, पारलोइया सेसा, अहवा (आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१४-३१४) इहलोइया इहलोगदुक्खउप्पायगा पहारअक्कोसदसमसगा- २. आयारो, ३.१५ । दिया, यदुक्तं भवति-पडिलोमा, परलोइया, परलोक- ३. वही, ३।४। दुक्खुप्पायगा, यदुक्तं भवति - अणुलोमा, केइ ४. वही, ५१११। उभयलोइया, तंजहा.... अस्सगतो पुरिसो, अतिणेति, तहा
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