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आचारांगभाष्यम् भाष्यम् ३३–एते पदार्थाः शरीरं च अज्ञानवतः ये पदार्थ और शरीर अज्ञानी व्यक्ति के लिए संग होते हैं, संगो' भवन्ति, आसक्तिकारणमिति यावत् । अत्र आसक्ति के हेतु बनते हैं । सूत्रकार ने स्पष्ट करते हुए कहा है-पदार्थ सूत्रकारेण स्पष्टीकृतम्-पदार्थः सङ्गस्य जनको आसक्ति का जनक नहीं है। अज्ञानी के लिए बह आसक्ति का कारण नास्ति । अज्ञानिनः स सङ्गाय भवति, ज्ञानिनः पुनर्न बनता है। ज्ञानी के लिए वह आसक्ति-जनक नहीं होता। भवति सङ्गाय। ३४. से सुपडिबुद्धं सूवणीयं ति णच्चा, पुरिसा! परमचक्खू ! विपरक्कमा । सं०-तत् सुप्रतिबुद्धं सूपनीतं इति ज्ञात्वा पुरुष ! परमचक्षुः ! विपराक्राम । परिग्रह महाभय का हेतु है-यह सम्यक् प्रकार से ज्ञात और उपदर्शित है । परमचक्षुष्मान् पुरुष ! तू परिग्रह-संयम के लिए पराक्रम
कर ।
भाष्यम् ३४--परिग्रहः महाभयस्य कारणमस्ति इति परिग्रह महाभय का हेतु है'-यह प्रत्यक्षज्ञानियों के द्वारा सुप्रतिबुद्धं प्रत्यक्षज्ञानिभिः सूपनीतं च-सुदृष्टैर्हेतुभिः सम्यक् प्रकार से ज्ञात और उपनीत है—'सुदृष्ट हेतुओं के द्वारा शिष्याणामुपदर्शितमिति ज्ञात्वा परमचक्षुष्मन् पुरुष ! शिष्यों के लिए उपदर्शित है' यह जानकर परमचक्षुष्मान् पुरुष ! तू विपराक्राम-अपरिग्रहसिद्धये विविधं विशिष्टं वा पराक्रम कर—अपरिग्रह की सिद्धि के लिए विविध प्रकार से अथवा यतस्व।
विशिष्ट प्रकार से प्रयत्न कर। ३५. एतेसु चेव बंभचेरं ति बेमि। सं०-एतेषु चैव ब्रह्मचर्य इति ब्रवीमि । परिग्रह का संयम करने वालों में ही ब्रह्मचर्य होता है, ऐसा मैं कहता हूं।
भाष्यम् ३५-एतेषु अपरिग्रहिषु पुरुषेष्वेव ब्रह्मचर्य इन अपरिग्रही पुरुषों में ही ब्रह्मचर्य होता है, ऐसा मैं कहता भवतीति ब्रवीमि । ब्रह्मचर्यम्-आत्मरमणं, हूं। ब्रह्मचर्य के तीन अर्थ हैं-आत्म-रमण, उपस्थसंयम–मैथुनविरति उपस्थसंयमः, गुरुकुलवासश्च । पदार्थप्रतिष्ठः पुरुषः तथा गुरुकुलवास । पदार्थों के प्रति आसक्त व्यक्ति आत्म-रमण नहीं नात्मनि रमणमहति । पदार्थं प्रति आकर्षणमावहतः कर सकता। जिस व्यक्ति का पदार्थ के प्रति आकर्षण होता है, उसके पुरुषस्य ब्रह्मचर्य न भवति सुकरम् । पदार्थ प्रति लिए ब्रह्मचर्य का पालन सुकर नहीं होता। जो व्यक्ति पदार्थ के प्रति असंयतस्य पुरुषस्य न हि सुशको भवति गुरुकुलवासः। असंयत होता है, उसका गुरुकुल में रहना सुशक्य नहीं होता। तात्पर्यार्थमिदं-अपरिग्रही पुरुष एव ब्रह्मचर्यसाधनां कर्तुं इसका तात्पर्य है कि अपरिग्रही पुरुष ही ब्रह्मचर्य की साधना करने में प्रभवति ।
समर्थ होता है। ३६. से सुयं च मे अज्झत्थियं च मे, बंध-पमोक्खो तुज्झ अज्झत्थेव । सं० -अथ श्रुतं च मम आध्यात्मिकं च मम, बंधप्रमोक्षः तव अध्यात्म एव । मैंने सुना है, मैंने अनुभव किया है-बंध और मोक्ष तुम्हारी आत्मा में ही है। १. आचारांग चणि, पृष्ठ १७०: कस्स सो संगो?
(ख) ब्रह्मचर्य के तीन अर्थ हैं-वस्ति-संयम, गुरुकुलवास अवियाणतो धम्मोवायं च ।।
और आत्मरमण। शरीर भी परिग्रह है। जिसके शरीर २. वही, पृष्ठ १७० : संगोत्ति वा विग्घोत्ति वा बक्खोडित्ति
में आसक्ति होती है, वह वस्ति-संयम नहीं कर सकता। वा एगट्ठा।
जिसके शरीर और वस्तुओं में आसक्ति होती है, वह न ३. वृत्तिकृता एतत् सूत्रं भिन्नरूपेण व्याख्यातम्-एनान् अल्पादिद्रव्यपरिग्रहसङ्गान् शरीराहाराविसङ्गान् वा
गुरुकुलवास (साधु-संघ) में रह सकता है और न आत्मअविजानतः अकुर्वाणस्य वा तत्परिग्रहजनितं महाभयं न
रमण के आधारभूत अहिंसा आदि चारित्रधर्म का पालन स्यात् । (वृत्ति, पत्र १८८)।
ही कर सकता है। यहां ये तीनों अर्थ घटित हो सकते ४. (क) आचारांग चणि, पृष्ठ १७० : उवस्थसंजमो गुरुकुल
हैं, फिर भी तीसरा अर्थ अधिक प्रासंगिक है। वास वा बंमचेर, अहवा एतेसु चेव आरंभपरिमाहेसु भावओ विप्पमुक्कं बंभचेरंति ।
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