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________________ अ० ५. लोकसार, उ० २. सूत्र ३०-३३ २५३ ३१. आवंतो केआवंती लोगंसि परिग्गहावंती–से अप्पं वा, बहुं वा, अणुं वा, थूलं वा, चित्तमंतं वा, अचित्तमंतं वा, एतेसु चेव परिग्गहावंती। सं०-यावन्तः केचन लोके परिग्रहवन्तः-ते अल्पं वा बहुं वा अणुं वा स्थूलं वा चित्तवन्तं वा अचित्तवन्तं वा एतेषु चैव परिग्रहवन्तः । इस जगत् में जितने मनुष्य परिग्रही हैं, वे अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त वस्तु का परिग्रहण करते हैं। वे इन वस्तुओं में मूर्छा रखने के कारण ही परिग्रही हैं। भाष्यम् ३१-यावन्तः केचन लोके परिग्रहिणः सन्ति इस जगत् में जितने मनुष्य परिग्रही हैं, वे अल्प या बहुत, ते अल्पं वा बहुं वा अणुं वा स्थूलं वा सचित्तं वा अचित्तं सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त वस्तु का परिग्रह करते हैं । वा परिग्रहमादाय एतेषु षड्भेदभिन्नेषु चैव मूर्च्छनात् वे इन छह प्रकार के परिग्रहों में मूच्छित होने के कारण ही परिग्रही परिग्रहिणो भवन्ति । होते हैं। __ पदार्थः पुद्गलद्रव्यनिष्पन्नः, स नास्ति परिग्रहः। पदार्थ पौद्गलिक है । वह परिग्रह नहीं है। मनुष्ग के द्वारा मनुष्येण मूर्छापूर्वकं परिगृहीतः परिग्रहो भवति। मूर्छापूर्वक परिगृहीत पदार्थ ही परिग्रह बनता है । 'मूर्छा परिग्रह है। 'मूर्छा परिग्रहः', इत्यपि सम्मतम् । किन्तु प्रस्तुतसूत्रे यह भी सम्मत है। किन्तु प्रस्तुत सूत्र में पदार्थ को लक्ष्य कर परिन ह पदार्थ लक्ष्योकृत्यैव परिग्रहस्य स्वरूपमस्ति प्रति- के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। पादितम् । ३२. एतदेवेगेसि महम्भयं भवति, लोगवित्तं च णं उवेहाए। सं०-एतदेवैकेषां महाभयं भवति, लोकवृत्तं च उपेक्ष्य ।। यह परिग्रह ही परिग्रही के लिए महामय का हेतु होता है । तुम लोकवृत्त को देखो। भाष्यम ३२-परिग्रहस्त्रिविधः शरीरकर्मपदार्थ- परिग्रह तीन प्रकार का है--शरीर का परिग्रह, कर्म का भेदात। केचित पदार्थ परित्यज्य विहरन्ति, किन्तु परिग्रह और पदार्थ का परिग्रह। कुछ व्यक्ति पदार्थों का परित्याग शरीरं प्रति मुच्छविन्तः सन्ति, तेषामेतदेव शरीरं कर देते हैं, किन्तु शरीर के प्रति मूच्र्छा रखते हैं, उनके लिए यही महाभयं भवति । लोकस्य वृत्तं-चरित्रं उपेक्ष्य। शरीर महाभय का कारण बन जाता है। तुम लोक के वृत्तयथा-लोक: धनधान्यादिपदार्थमूच्छितः महाभयं चारित्र को देखो। जैसे मनुष्य धन, धान्य आदि पदार्थों में मूच्छित जनयति तथा शरीरमूर्छापि, यथा वा लोकस्य होकर महाभय को पैदा करता है वैसे ही शरीर के प्रति मूर्छा भी वित्तं-धनधान्यादि महाभयं जनयति तथा शरीरस्य महाभय को पैदा करती है। अथवा लोक का वित्त-धन-धान्य आदि मूर्छापि। पदार्थ महाभय पैदा करता है, वैसे ही शरीर की मूर्छा भी महाभयजनक होती है। ३३. एए संगे अविजाणतो। सं०-एते सङ्गाः अविजानतः । अज्ञानी के लिए ये पदार्थ संग होते हैं । १. दसवेआलियं ६।२०। २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १६९ : लोगे वित्तं च णं लोगचरितं, जहा लोगो धणआहारसरीरातिमुच्छितो तहा उद्दडगातीवि सरीरमुच्छातो तश्वित्ता.....। तत्य लोगो-गिहीणो, तेसि वित्तं-धणधनाइ चणमिति पूरणे तं उविक्ख, किमिति ? जहा लोगस्स मुच्छापरिग्गहाइ वित्तं महम्मयं, तहा....."सरीरमेव महाभयं । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १८८: लोकस्य-असंयत लोकस्य वित्तं-द्रव्यमल्पादिविशेषणविशिष्ट....... लोकवित्तं लोकवृत्तं वा आहारमयमैथुनपरिग्रहोत्कटसंज्ञात्मकं महते भयाय । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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