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भाष्यम् २९ - आलम्बनसूत्रमिदम् अनेन आलम्बनेन रोगातंकजनितं कष्टं सोढव्यम्। यूयं पश्यत एतद् रूपं अय' पूर्वमपि एतत् पश्चादपि भिदुरधर्म भिद्यते, स्वयमेव भिद्यते इति तात्पर्यम्। तथा एतच्छरीर जीर्णशकटमिव विध्वंसनधर्म, अनुवं', अनित्यं, अशाश्वतं चयापचयकं विपरिणामधर्मं च वर्तते । एतद् इष्टाहारेण चीयते तदभावाद् अपचीयते तथा चत्वारिशद्वर्ष पर्यन्तं चीयते ततः परं अपचीयते, अतः चयापचयिकम् । गर्भ कौमारयौवनादिभिर्विविधैः परिणामैः परिणतो भवति, अतो विपरिणामधर्मम् ।
रुपम् 'शरीरम् ।
३०. संधि समुष्येमाणस्स एगायतण रयस्स इह विप्यमुक्करस, णत्थि मग्गे विरयस्स त्ति बेमि ।
सं० - संधि समुत्प्रेक्षमाणस्य एकायतनरतस्य इह विप्रमुक्तस्य नास्ति मार्ग : विरतस्य इति ब्रवीमि ।
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जो कर्म-विवर को देखता है, एक आयतन (वीतरागता) में सीन है, ऐहिक ममत्व से मुक्त है, हिंसा से विरत है, उसके लिए कोई मार्ग नहीं है, ऐसा मैं कहता है।
भाष्यम् ३० - यो रूपस्य - शरीरस्य संधि समुत्प्रेक्षमाणः एकस्मिन् आयतने- देहातीते चैतन्ये रतो भवति, शरीरविषयकममत्व विप्रमुक्तश्च तस्य विरतस्व नास्ति मार्गः ।
१. (क) आचारांग चूमि, पृष्ठ १६७ से इति ि (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १८६ ।
२ मावि वा पच्छा या अवस्सविप्यनहिय भवस्तद' (भगवई ९।१७२ ) इति पाठस्य संदर्भ संगच्छते । चूर्णिकारेण अत्र चत्वारः विकल्पाः प्रस्तुताः । तत्र चतुर्थी विकल्यः संगतोति तहा पुण्येवा वये (चूर्णि, पृष्ठ १६७ ) ।
वृत्तिकृता मित्ररूपेण कृतास्ति-से पुण्वमित्यादि, स स्पृष्टः पीडितः आशुकारिभिरातकैरेतद्
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अस्य तात्पर्यम् यः सन्धिदर्शनेन चैतन्यानुभव प्रतिपन्नवान्, यस्य विरतिः सहजा जाता, तस्य कृते साधनायाः पद्धतेः ध्यानमार्गस्य वा नास्ति कश्चिद् निर्देश: । यो लक्ष्यमुपलब्धवान् तस्य कृते को मार्गः ? उक्तमपि च – 'उद्दे सो पासगस्स णत्थि ।" साधनायाः नास्ति कश्चिद् एक एव मार्गः । येन येन उपायेन वीतरागताया अनुभवो भवति, ते सर्वेऽपि मार्गा एव ।
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व्याख्या
आचारांग भाष्यम्
प्रस्तुत आलापक आलंबन -सूत्र है । इस आलंबन सूत्र से रोग और आतंक से उत्पन्न कष्ट को सहन करना चाहिए तुम देखो, यह शरीर भिदुरधर्मा है पहले या पीछे एक दिन अवश्य ही नष्ट होने वाला है । इसका तात्पर्य है कि वह स्वयं नष्ट हो जाएगा । और यह शरीर जीर्ण-शीर्ण शकट की भांति विध्वंस होने वाला है। यह अव अनित्य और अशाश्वत है। इसका उपचय और अपचय होता है। इसकी विविध अवस्थाएं होती हैं। यह शरीर मनोज आहार से उपचित होता है और उसके अभाव में अपचित हो जाता है । इसका उपचय चालीस वर्ष की उम्र तक होता है। उसके बाद इसका अपचय होने लगता है । इसलिए यह शरीर चयापचयिक है । यह गर्भ, कुमारावस्था, यौवनावस्था आदि विविध अवस्थाओं में परिणत होता है, इसलिए वह विपरिणामधर्मा है। रूप का अर्थ है
शरीर ।
जो शरीर की संधि को देखता है वह एक आयतन- - देहातीत चैतन्य में लीन होता है। वह शरीर के ममत्व से मुक्त होता है। उस विरत व्यक्ति के लिए कोई मार्ग नहीं है।
इसका तात्पर्य यह है - जो साधक संधि को देखने से चैतन्य के अनुभव को प्राप्त कर लेता है, जिसके सहज विरति होती है उस व्यक्ति के लिए साधना की पद्धति अथवा ध्यान मार्ग का कोई निर्देश नहीं होता। जो लक्ष्य को प्राप्त कर चुका है उसके लिए कौनसा मार्ग ? (अथवा उसके लिए कैसा मार्ग ? ) इसी आगम में कहा है 'द्रष्टा के लिए कोई व्यपदेश नहीं होता।' साधना का कोई एक ही मार्ग नहीं है । जिन-जिन उपायों से वीतरागता का अनुभव होता है, वे सभी मार्ग ही है।
भावयेद् -- असातावेदनीयविपाकजनितं दुःखं मयंव सोढव्यं, पश्चादयेत्तमन्येव सहनीयम् (वृति पत्र १८६) ।
३, ४, ५. आप्टे, ध ुवं - Unchangable, नित्यं - Continual, शाश्वतं - Eternal.
६. (क) आचारांग चूर्णि, पृष्ठ १६८: रूवमिति सव्वेंदियाबाणं सरीरं ।
(ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १८७ ।
७. आयारो, २।७३ ।
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