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अ०५. लोकसार, उ० २. सूत्र २४-२६
२५१ नास्ति तादृक् दुःशकः यादृगस्ति सूक्ष्मजीवलोकस्य नहीं है, जितना दुःसाध्य है सूक्ष्मजीवों की हिंसा का परिहार करना । हिंसायाः परिहारः । अनारम्भजीवित्वस्य संकल्पः अति- अनारंभ जीवन जीने का संकल्प अत्यन्त कठिन है। इसलिए कभी कठिनोस्ति । तेन कदाचित् एतादृशो विकल्पोऽपि साधक के मन में ऐसा विकल्प भी उत्पन्न हो सकता है कि सूक्ष्म जीवों संभवेत्-क्व सूक्ष्माः जीवा: ? इति विकल्पस्य प्रसंग का अस्तित्व है कहाँ ? इस विकल्प के प्रसंग को लक्ष्य कर सूत्रकार लक्ष्यीकृत्य सूत्रकारेण निर्दिष्ट, अनारम्भजीवी सूक्ष्म- ने यह निर्देश दिया है कि अनारंभजीवी साधक सूक्ष्मजीवलोक का लोकस्य अपवादं न कुर्यात्, स नास्तीति मृषा न वदेत् । अपवाद न करे, उसका अस्तित्व नहीं है इस प्रकार मृषा न बोले । अस्यां स्थितौ जीवनयात्रां परिचालयन् कदाचित् कष्टः इस स्थिति में वह जीवनयात्रा को चलाता हुआ कभी कष्टों से स्पृष्ट स्पृष्टः स्यात् तदा स्पर्शान-कष्टानि विप्रणोदयेत्, न हो जाए तो उन कष्टों को समभाव से सहन करे, उनसे पराजित न तु तैरभिभूतः स्यात् । २७. एस समिया-परियाए वियाहिते। सं०- एष सम्यकपर्यायः व्याहृतः । यह सम्यक् पर्याय वाला कहलाता है।
भाष्यम् २७–एषः अहिंसकः कष्टसहिष्णुश्च पुरुषः भगवान् ने ऐसे अहिंसक और कष्ट-सहिष्णु पुरुष को सम्यक् सम्यकपर्यायः-समतायाः पारगामी' व्याहृतो भगवता। पर्याय-समता का पारगामी कहा है। २८. जे असत्ता पावेहि कम्मेहि, उदाह ते आयंका फुसंति । इति उदाहु वोरे ते फासे पुट्ठो हियासए। सं०-ये असक्ताः पापेषु कर्मसु उताहो तान् आतङ्काः स्पृशन्ति । इति उदाह वीरः तान् स्पर्शान् स्पृष्टः अधिसहेत । जो मुनि पाप-कर्म में आसक्त नहीं हैं, उन्हें भी कभी-कभी शीघ्रघाती रोग पीड़ित कर देते हैं। इस संदर्भ में भगवान् महावीर ने ऐसा कहा-'उन शीघ्रघाती रोगों के उत्पन्न होने पर मुनि उन्हें सहन करे।'
भाष्यम् २८-एकदा भगवतो महावीरस्य समीपे एक बार भगवान् महावीर के पास कुछ मुनि आए, उन्होंने केचिन्मुनयः समागताः, जिज्ञासितं च तै:-'भगवन् ! जिज्ञासा की-'भगवन् ! जो पुरुष अनासक्त, तपस्वी, संयमी और ये अनासक्ताः पुरुषाः सन्ति तपस्विनः संयमिनः ब्रह्मचारी हैं, वे भी रोगों से आक्रान्त होते हैं, यह क्यों ?' ब्रह्मचारिणश्च तेऽपि रोगैराकान्ता भवन्ति, कथमिदम् ?'
भगवता प्रोक्तम्-आर्याः ! ज्ञातव्यं युष्माभिः भगवान् ने कहा-आर्यो ! तुम्हें ज्ञात होना चाहिए कि रोग रोगसंयमयोश्च भिन्नोऽस्ति हेतुः।
और संयम का हेतु भिन्न-भिन्न है। तज्जिज्ञासामो भगवन् !
मुनि बोले-'हम उन हेतुओं को जानना चाहते हैं, भगवन् !' भगवान् प्राह-संयमस्य हेतुरस्ति चारित्रमोहस्य भगवान् बोले-संयम का हेतु है-चारित्र मोहनीय कर्म का क्षयोपशमः, रोगस्य च हेतुरस्ति वेदनीयस्योदयः, स च क्षयोपशम और रोग का हेतु है-वेदनीय कर्म का उदय । वह केवलिनोऽपि भवति ।
केवलियों के भी होता है । प्रोक्तं भगवता-तैः रोगातंकः स्पृष्टस्तान् भगवान ने कहा-साधक उन रोग और आतंकों से स्पृष्ट स्पर्शान् सम्यक् सहेत।
होने पर उनको समभाव से सहन करे । २६. से पुव्वं पेयं पच्छा पेयं भेउर-धम्म, विद्धंसण-धम्म, अधुवं, अणितियं, असासयं, चयावचइयं, विपरिणाम-धम्म, पासह एवं रूबं। सं०-अथ पूर्वं अप्येतत् पश्चादप्येतत् भिदुरधर्म, विध्वंसनधर्म, अध्रुवं, अनित्यं, अशाश्वतं, चयापचयिक, विपरिणामधर्म, पश्यत एतद् रूपम् । तुम इस शरीर को देखो। यह पहले या पीछे एक दिन अवश्य ही नष्ट होने वाला है। विनाश और विध्वंस इसका स्वभाव है। यह अध्रव, अनित्य और अशाश्वत है। इसका उपचय और अपचय होता है। इसकी विविध अवस्थाएं होती हैं। १(क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १६७ : समगमणं समिया, (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १८६ : स सम्यकपर्यायः शमितापारगमणं परियाए।
पर्यायो वा व्याख्यातः।
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