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पंचमं अज्झयणं : लोगसारो पांचवां अध्ययन : लोकसार पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक
१. आवंती केआवंती लोयंसि विप्परामुसंति, अट्ठाए अणढाए वा, एएसु चेव विप्परामुसंति । सं०-यावन्तः केचन लोके विपरामृशन्ति अर्थाय अनर्थाय वा, एतेषु चैव विपरामृशन्ति ।। इस जगत् में जो मनुष्य प्रयोजनवश या निष्प्रयोजन जीव-वध करते हैं, वे इन छह जीव-निकायों में से किसी भी जीव-निकाय का वध कर देते हैं।
भाष्यम् १-साधकेन रागद्वेषविमुक्तेन भाव्यम् । साधक को रागद्वेष से मुक्त रहना चाहिए। राग-द्वेष से रागद्वेषयोविमुक्तिरेव साधनायाः सारम् । तयोः प्रवृत्तः विमुक्ति ही साधना का सार है। राग-द्वेष में प्रवृत्त व्यक्ति क्या-क्या पुरुषः किं किमाचरतीति जिज्ञासायां सूत्रकारो वक्ति- आचरण करता है, इस जिज्ञासा के प्रसंग में सूत्रकार कहते हैंयावन्तः कियन्तो मनुष्याः रागद्वेषवशंवदा वर्तन्ते, ते जितने मनुष्य राग-द्वेष के वशवर्ती हैं, वे लोक में हिंसा का आचरण लोके विपरामशन्ति'-हिंसाचरणे प्रवर्तन्ते । तेषु केचन करते हैं। उनमें से कुछेक लोग प्रयोजनवश हिंसा करते हैं और कुछ अर्थम् --प्रयोजनमासाद्य हिंसां कुर्वन्ति, केचिच्च अनर्थ- बिना प्रयोजन ही हिंसा करते हैं। हिंसा का द्रव्य या विषय हैमेव हिंसां कुर्वन्ति । हिंसाया द्रव्यं विषयो वा- षड्जीवनिकाय । इसीलिए कहा है वे लोग इन छह जीवनिकायों की षड्जीवनिकायः । तेनोक्तम्--एतेषु षट्सु जीवनिकायेषु हिंसा में प्रवृत्त होते हैं । विपरामृशन्ति ।
२. गुरू से कामा। सं०---गुरवः तस्य कामाः । उनकी कामनाएं विशाल होती हैं।
भाष्यम् २-हिंसायाः त्रीणि प्रयोजनानि कामार्थ- हिंसा के तीन प्रयोजन निरूपित हैं- काम, अर्थ और धर्म। धर्मरूपाणि निरूपितानि। अत्र कामोऽस्ति विवक्षितः। प्रस्तुत प्रकरण में 'काम' की विवक्षा है। जिस पुरुष के काम गुरुयस्य कामा गुरवः-दूस्त्यजा अनतिक्रमणीया वा दुस्त्यज अथवा अनतिक्रमणीय होते हैं, वह उनकी संपूर्ति के लिए हिंसा भवन्ति, स तत्पूर्तिनिमित्तं हिंसायां प्रवर्तते।
में प्रवृत्त होता है। पूर्वमेव प्रतिपादितं 'कामा दुरतिक्कमा' (२।१२१)। इससे पूर्व (२।१२१) में यह प्रतिपादित किया जा चुका है कि पुरुषार्थचतुष्टय्यां कामः अर्थश्च इति पुरुषार्थद्वयी 'काम दुलंध्य हैं'। पुरुषार्थ चतुष्टयी में काम और अर्थ-ये दो इन्द्रियचेतनां अनुबध्नाति । धर्मो मोक्षश्च अनुबध्नाति पुरुषार्थ इन्द्रिय-चेतना से अनुबंधित हैं और धर्म तथा मोक्ष-ये दो अतीन्द्रियचेतनाम् । इन्द्रियचेतनाजगति रागद्वेषौ पुरुषार्थ अतीन्द्रिय-चेतना से अनुबंधित हैं। इन्द्रिय-चेतना के जगत में प्रवर्तते । अतीन्द्रियचेतनाजगति वीतरागता राग-द्वेष प्रवर्तित होते हैं। अतीन्द्रिय-चेतना के जगत् में वीतरागता
१. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १५७ : विविहं परामुसंति, जं
भणितं-घातंति, अहवा परामुसणं आरंभो, जं भणियं-एतेसु चेव आरभति । आचारांग वृत्ति, पत्र १७९ : विविधम् - अनेकप्रकार विषयाभिलाषितया परामशन्ति' उपतापयन्ति दण्ड
कशताडनादिभिर्घातयन्तीत्यर्थः । २-३. आचारांग चूणि, पृष्ठ १५७ : अट्ठाए वा अर्यधर्म
कामनिमित्तं । "आतपरउभयहेतुं अट्ठा, सेसं अणद्वाए। ४. वही, पृष्ठ १५७ : जो जस्स अणतिक्कमणिज्जो सो तस्स
गुरू, भारियाउत्ति वा सुम्वति ।
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