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अ० ४. सम्यक्त्व, उ०४, सूत्र ४१-४४
२२७ काङक्षां न कुर्वन्ति ते वस्तुतो वोरा एव । तेषां मार्गो आकांक्षा नहीं करते वे वस्तुतः वीर ही होते हैं। उनका मार्ग दुरनुचर दुरनुचरो वर्तते । अस्मिन् मार्गे वीरा एव गन्तं प्रभवन्ति, होता है उस पर चलना कठिन होता है। इस मार्ग पर वीर पुरुष न च पराक्रमशून्याः मनुष्याः ।
ही चलने में समर्थ होते हैं। पराक्रमशून्य व्यक्ति इस पर चल नहीं सकते।
४३. विगिच मंस-सोणियं । सं०-विविङ क्ष्व मांसशोणितम् । मांस और रक्त का विवेक कर, अपचय कर।
भाष्यम् ४३ -संयमानुपालनस्य मुख्या बाधास्ति संयम के पालन में मुख्य बाधा है-कामासक्ति । इसलिए कामासक्तिः । तेन तस्याः प्रतिकारः निर्दिश्यते। कामासक्ति के प्रतिकार की बात बताई जा रही है। कामसंज्ञा की मांसशोणितोपचयः कामसंज्ञायाः उत्पत्तरेक उत्पत्ति का एक कारण है मांस और रक्त का उपचय । इसलिए मांस कारणमस्ति । तेन मांसशोणितयोरपचयं कुरु इति और रक्त का अपचय करो-ऐसा निर्देश है। निर्दिष्टम् ।
शरीरं धर्मस्य आधारभूतम् । तदाधारभूतश्च धर्म के आचरण का आधार है-शरीर । उस शरीर का मांसशोणितयोरुपचयः, तदा तयोरपचयः किमर्थं आधारभूत तत्त्व है-मांस और रक्त का उपचय । तब प्रश्न होता कार्यः ? अस्य तात्पर्यमिदम् तावानपचयः कार्यः येन है कि उनका अपचय क्यों करना चाहिए ? इसका तात्पर्य यह है कि मांसशोणिते कामसंज्ञायाः उत्पत्तेर्हेतुतां न प्रपद्येताम् । उतना ही अपचय करना चाहिए जिससे कि मांस और रक्त कामसंज्ञा
की उत्पत्ति के हेतु न बने । निर्बलाहारेण रक्तस्योपचयो न जायते, तेन विना अपौष्टिक आहार करने से रक्त का उपचय नहीं होता। रक्त मांसमेदोऽस्थिमज्जावीर्यादिधातूनामुपचयो न भवति, के बिना मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य आदि धातुओं का उपचय एवमनायासं आपीडनं साधितं भवति ।
नहीं होता। इससे अनायास ही आपीडन सध जाता है ।
४४. एस पुरिसे दविए वीरे, आयाणिज्जे वियाहिए। जे धुणाइ समुस्सयं, वसित्ता बंभचेरंसि ।
सं०--एष पुरुषः द्रव्यः वीरः आदानीयो व्याहृतः । यः धुनाति समुच्छ्रयं उषित्वा ब्रह्मचर्य । वह पुरुष राग-द्वेष मुक्त, पराक्रमी और अनुकरणीय होता है। वह ब्रह्मचर्य में रहकर शरीर और कर्म-शरीर को कृश कर देता है।
भाष्यम् ४४-एष मांसशोणितयोरपचयकारक: पुरुष: जो मांस और रक्त का अपचय करता है वह पुरुष द्रव्य अर्थात् द्रव्यः-रागद्वेषमुक्तो भवति । स पराक्रमं प्रयुञ्जानः राग-द्वेष से मुक्त होता है। वह अपनी शक्ति का प्रयोग कर दूसरों अन्येषां आदानीयः-अनुकरणीयो वा व्याहृतः । के लिए आदानीय–अनुकरणीय होता है।
समुच्छ्यः द्विविधः-द्रव्यसमुच्छ्यः -शरीरम्, भाव- समुच्छ्य दो प्रकार का है द्रव्य समुच्छ्रय -शरीर और समुच्छ्य:-क्रोधमानमायालोभा: सर्वो वा मोहः। भाव समुच्छ्रय -क्रोध, मान, माया और लोभ अथवा सम्पूर्ण मोहनीय तं धुनाति ब्रह्मचर्ये वासं कृत्वा ।
कर्म (मोहनीय कर्म की सारी प्रकृतियां)। वह ब्रह्मचर्य में रहकर
शरीर और कर्म-शरीर को कृश कर देता है। ब्रह्मचर्यस्य त्रयोऽर्थाः भवन्ति'-आचारः मैथुनविरतिः ब्रह्मचर्य के तीन अर्थ होते हैं -आचार, मैथुन-विरति और गुरुकुलवासश्च । अत्र मैथुनविरमणं प्रासङ्गिकम् । गुरुकुलवास । प्रस्तुत प्रकरण में ब्रह्मचर्य का अर्थ मैथन-विरमण
प्रासंगिक है।
१. द्रष्टव्यम-आयारो. ५३५ पावटिप्पणम ।
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