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आचारांगभाष्यम् ४५. णेत्तेहि पलिछिन्नेहि, आयाणसोय-गढिए बाले। अव्वोच्छिन्नबंधणे, अणभिक्कंतसंजोए । तमंसि अविजाणओ
आणाए लंभो णस्थि त्ति बेमि । सं० नेत्रेषु परिच्छिन्नेषु आदानस्रोतोग्रथित: बाल: अव्यवच्छिन्नबन्धनः अनभिक्रांतसंयोगः तमसि अविजानत आज्ञाया: लम्भो नास्ति इति ब्रवीमि । इन्द्रिय-जय की साधना करते हुए भी जो अज्ञानी इन्द्रिय-विषयों में आसक्त हो जाता है और जो पारिवारिक बन्धन एवं आर्थिक अनुबंध को तोड़ नहीं पाता, वह आसक्ति के अंधकार में प्रविष्ट होकर विषय-लोलुपता के दोषों से अनभिज्ञ हो जाता है । ऐसा साधक आज्ञा का लाभ नहीं उठा पाता, ऐसा मैं कहता हूं।
भाष्यम ४५-नयन्तीति नेत्राणि-इन्द्रियाणि । जो विषयों को प्राप्त कराती हैं वे नेत्र हैं अर्थात इन्द्रियां हैं। चक्षर्वर्जानि इन्द्रियाणि कथं नेत्राणि ? श्रोत्रादीन्यपि प्रश्न होता है कि चक्षु को छोड़कर शेष इन्द्रियां प्राप्त कराने वाली इन्द्रियाणि स्वं स्वं विषयं नयन्ति तेन नेत्राणि भवन्त्येव। कैसे हैं ? श्रोत्र आदि इन्द्रियां भी अपने-अपने विषय को प्राप्त कराती परिच्छिन्नम्-जितम् । इन्द्रियेषु जितेषु कश्चिद् बालः हैं इसलिए वे भी नेत्र हैं। परिच्छिन्न का अर्थ है विजित । इन्द्रियआदानस्रोत सि ग्रथितो भवति । स अव्यवच्छिन्नबन्धनः जय की साधना करते हुए भी कोई अज्ञानी पुरुष इन्द्रिय-विषयों में अनभिक्रान्तसंयोगो भवति, पुनरपि गृहे आवसति । आसक्त हो जाता है और वह पारिवारिक बन्धन एवं आर्थिक अनुबंध तादशस्य तमसि गतस्य कामासक्तेरपायान् अविजानतः को तोड़ नहीं पाता, तब वह पुनः गृहवासी बन जाता है । आसक्ति के आज्ञायाः लम्भो नास्ति ।
अंधकार में प्रविष्ट तथा कामासक्ति (विषय-लोलुपता) के दोषों से
अनभिज्ञ वैसे व्यक्ति के आज्ञा का लाभ नहीं होता। आज्ञा-श्रुतम् । तस्य सारमस्ति आचारः। तस्य आज्ञा का अर्थ है-श्रुत । उसका सार है-आचार । आचार सारमस्ति कर्म निर्जरा। विषयलोलुपः पुरुषः सम्यगा- का सार है-कर्म-निर्जरा । विषय-लोलुप व्यक्ति सम्यग् आचरण और चरणं कर्मनिर्जरां प्रति च न गतिमान् भवति । कर्म-निर्जरा के प्रति गतिशील नहीं होता।
४६. जस्स नत्थि पुरा पच्छा, मज्झे तस्स को सिया ?
सं०-यस्य नास्ति पुरा पश्चात् मध्ये तस्य कुत: स्यात् ? जिसका आदि-अंत नहीं है, उसका मध्य कहां से होगा ?
भाष्यम् ४६-पुरा--अतीतकालः । पश्चात्- पुरा का अर्थ है-अतीतकाल और पश्चाद् का अर्थ है---- भविष्यकालः। यस्य भुक्तविषयाणामनुस्मरणं तथा भविष्यकाल। जिस व्यक्ति में भुक्त विषयों की अनुस्मृति तथा अनागतकालभाविनी विषयाशंसा नास्ति तस्य परम- भविष्य की विषयाशंसा नहीं होती, उस व्यक्ति में परम निरोध के निरुद्धत्वात् मध्ये इति वर्तमानकाले सा कुतः स्यात् ? न कारण मध्य अर्थात् वर्तमान काल में वह विषयाशंसा कहां से हो स्यादिति वाक्यावशेषः ।
सकती है ? कभी नहीं हो सकती। प्रस्तुतसूत्रस्य दार्शनिकदृष्ट्यापि व्याख्यानं क्रियते ... प्रस्तुत सूत्र की दार्शनिक दृष्टि से भी व्याख्या की जाती हैयस्य पूर्वमस्तित्वं नास्ति, भविष्यत्यपि अस्तित्वं नास्ति, जिसका अतीत में अस्तित्व नहीं है, भविष्य में भी अस्तित्व नहीं है तस्य वर्तमाने अस्तित्वं कुतः स्यात् ? पूर्वजन्मपुनर्जन्म- तो उसका वर्तमान में अस्तित्व कहां से होगा ? इसका तात्पर्य है कि
१. (क) तुलना-माण्डूक्यकारिका २१६ :
'आदावन्ते च यन्नास्ति, वर्तमानेऽपि तत्तथा ।' माध्यमिक कारिका ११।२ :
'नवाग्रं नावरं यस्य, तस्य मध्यं कुतो भवेत् ।' (ख) भोगेच्छा के संस्कार का उन्मूलन नहीं होता, तब
तक वह साधना-काल में भी समय-समय पर उभर आता है। अत एक कभी-कभी जितेन्द्रिय साधक भी अजितेन्द्रिय बन जाता है। किन्तु साधना के द्वारा
जब भोगेच्छा का संस्कार उन्मूलित हो जाता है, क्षीण हो जाता है, तब भोगेच्छा की त्रैकालिक निवृत्ति हो जाती है । फिर न वह पहले होती, न पीछे होती और न मध्य में होती--कभी भी नहीं होती। अतीत का संस्कार नहीं होता तो भविष्य की कल्पना नहीं होती तथा संस्कार और कल्पना के बिना वर्तमान का चिन्तन नहीं होता।
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