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________________ ५४० विमुक्ति का विचय सूत्र २।४९ संचय का प्रकार ३।३१ सम्मान की वांछा भी २।४९ से इच्छा की अपूर्ति ३।४२ परिक्षा और सर्वपरिज्ञाचारिता २।१७९ परिचारी २१०२ का अर्थ १।७;२।१४५, १७१ के चार चरण २।१७१ प्रकार ५१९ से कर्मोपशान्ति २।१५५ परिजातकर्मा और गीता १।१२ महावीर १।१२ का अर्थ १।१२ मुनि का स्वरूप १।३४ परीषह और उपसर्गों का मंथन ८।१०७, १२७ दृष्टिमान् ३७० महावीर देखें महावीर सहन का क्रमिक अभ्यास ६ । ३२ पुरुष पापकर्म मुनि का परम धर्म ६।९९ में अक्षम का दुर्निष्क्रमण ६।८५ से देह की भग्नता ८३५ अकरणीय १।१७४; ५।५५-५६ का आचरण न करने के हेतु ३।५४ निषेध २।१४९ क्षय दीर्घकाल सापेक्ष ३।३९ के क्षय का उपाय ३।४१ को दूर करने का प्रयोग १।१७५ न करने वाला महान् अग्रन्थ ८।३३ में आसक्त नहीं, उन्हें भी रोग २० से उपरत ३।१६ निवृत्त अनिदान ४३८ पुनर्जन्म-जातिस्मृति अनेक चित्तवाला ३।४२ का अर्थ १।७ परिताप २।४० कामकामी २।१२३, १३४ के प्रकार २।२३ ५। १५; ६१४५ Jain Education International जातिस्मृति सम्पन्न १ परमचक्षुष्मान् ४।३४ स्वयं अपना मित्र ३।६२ पूर्वजन्म, देखें जातिस्मृति पृथ्वी के आश्रित जीव १८५ पृथ्वीकायिक जीव का भोगित्व १२८ की इन्द्रियान से १२८ पृ.४१ दृश्यता १२८ पृ. ३८ विवक्षा १।१६ के पृथक्-पृथक् शरीर १।१६ शरीर की अवगाहना १२८ पृ. ३८ में आभामण्डल का अस्तित्व १२० पृ. ४१ आश्रव १२८ पृ. ३९ आहाराविता १२८ पृ. ४० उन्माद १२८ पृ. ३९ कारण १।२८ पृ. ३७ कषाय १२८ पृ. ४१ जरा और शोक ११२८ पृ. ३९ ज्ञान १२८ पृ. ४० पर्यव १२८ पृ. ४१ लेश्या ११२८ पृ. ४१ वेदना १२८ पृ. ३७ श्वासोच्छ्वास १२८ पृ. ३७ संज्ञा १२८ पृ. ४० पृथ्वीकायिक जीव का अस्तित्व अतीन्द्रिय ज्ञान प्रमाण १।२८ आचार्य कुन्दकुन्द का मन्तव्य ११२८ भूवैज्ञानिकों का मन्तब्य ११२८ पृथ्वीकायिक जीव की हिंसा ११९,२२, २७,३१ का विवेक १।३१-३४ के कारण १।१५,२१,२६ परिणाम १।२३, २५ से अन्य जीवों की हिंसा १।२७ प्रज्ञान अविरत १।१८ विरत १।१७ विरति का कारण १।३२ और प्रज्ञानवान ४।४७ For Private & Personal Use Only आचारांग भाष्यम् का अर्थ ; १।१७४, २।२५-२६; ४ ४७; ६/६७ कर्तव्य ६६८ के शरीर का लाघव ६।६७,७७ विरत २६० तीर्ण, मुक्त, सर्व-समन्वागत - प्रज्ञा ५।५५ प्रमत्त का अर्थ ४।१४ चित्त ३।४२ भावपरिवर्तन ४।१५ दशा में उदीरणा और संक्रमण ५।२३ मुनि के कर्म-बन्ध ५७२ व्यक्ति धर्म से बाहर ४।११ प्रभाव और हिंसा की अनुस्यूति ४।११ के कारण २।५५, १५२ हेतु ३६८ न करने का कारण ५।२३ प्रवृत्ति देखें-कर्म कर्म समारम्भ; आयव अकरणीय या करणीय १५ और अनुवृत्ति का सिद्धान्त २।१३४ के तीन विकल्प १।३३ निष्कर्मदर्शी बनने का उपाय ४।५० देखें- आत्मदर्शी प्रव्रज्या अभिनिष्क्रमण के समय की स्थिति ६।२६-२८ अहो विहार का क्षण २।२४ के लिए प्रस्थान २।१०, २३-२६ लिए अवस्था २।२३ ग्रहण की अवस्था ८।१५ के पश्चात् कर्तव्य ४|४० मध्यम अवस्था में ८ ३०-३१ निष्क्रमण का उद्देश्य ६८५ में असम्यक् प्रवर्तन ५। १०७ विहरण के हेतु ६९८ प्राणी श्रद्धा को बनाए रखना १९३६ का तात्पर्य ४।१ के प्रकार ६।१२ प्राणों का अपहरण ६।१४ लिए अशांति महाभयंकर १।१२२ दुःख से भय ६।१५ को www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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