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________________ अ० ८. विमोक्ष, उ० १. सूत्र ६-६ ६. जमिणं विप्पडवण्णा मामयं धम्मं पण्णवेमाणा । सं० यदिदं विप्रतिपन्नाः मामकं धर्मं प्रज्ञापयमानाः । पूर्वोक्त परस्पर-विरोधी वादों को स्वीकार करने वाले वे अपने-अपने धर्म का निरूपण करते हैं। भाष्यम् ६ यदिदं विप्रतिपन्नाः परस्परविरुद्धा वाचो वदन्तः मामकं धर्मं प्रज्ञापयमाना दृश्यन्ते ते वदन्ति मम धर्मेऽस्ति सिद्धि: नान्यत्र । 1 ७. एल्यवि जाणह अकस्मात् । सं० - अत्रापि जानीत अकस्माद् । तुम जानो, ये एकांगी वाद अहेतुक हैं। भाष्यम् ७ – विप्रतिपन्नानां संस्तवेन अपुष्टधर्माः शिष्याः विप्रतिपत्तिं गच्छन्ति, तेन तेषां संस्तवः प्रतिषिद्ध:, तथापि ग्लानादिनिमित्तं अन्येन केनापि हेतुना तेषां संसर्गः स्यात् तदा प्रसज्यमानायां तत्त्वचर्चायां मुनिः तान् प्रतिवदेत् अत्रापि यूयं जानीत, एते एकाङ्गिनो वादा : अकस्माद् अहेतुका वर्तन्ते । भाष्यम् - मिष्याग्रहसमन्विता एकांतदृष्टिः तत्त्वस्य सत्यस्य वा निरूपणे बाधां उपस्थापयति । एवं पूर्वोक्त प्रकारेण ये एकांतदृष्ट्या तत्त्वं निरूपयन्ति तेषां अहेतुवादिनां धर्मः नो स्वाख्यातः नो सुप्रज्ञप्तो भवति । ८. एवं तेसि णो सुभक्खाए, जो सुपण्णत्ते धम्मे भवति । सं० – एवं तेषां नो स्वाख्यातः, नो सुप्रज्ञप्तः धर्मो भवति । इस प्रकार उन अहेतुवादी दार्शनिकों का धर्म न सुआख्यात होता है और न सुनिरूपित । १. चूर्णी (पृष्ठ २५४) 'विप्यडियण्णा' इति विवृतमस्तआयारं प्रति एगे विप्पडवण्णा - केइ सुहेणं धम्ममिच्छति, केइ दुक्खेणं, केइ व्हाणेणं, केइ मोणेणं, केइ गामवासेणं, es अरण्णवासेणं । २. चूर्णो (पृष्ठ २५४) अकम्मा इति पदं विद्यते - अकम्मा अऊ ण कम्मा अम्मा, जं भणितं - अहेतुं । वृत्ती (पत्र २४२) अकस्मादिति मागध आगोपालाङ्गनादिना संस्कृतस्येबोच्चारणादिहापि सर्वोच्या रित इति कस्मादिति हेतुः न कस्माद कस्माद् तोरभावादित्यर्थः । ३. 'लोक वास्तविक है' और 'लोक वास्तविक नहीं है' ये जो इस प्रकार विप्रतिपन्न - परस्पर विरोधी वादों का कथन करते हैं वे अपने-अपने धर्म का निरूपण करते हुए देखे जाते हैं। वे कहते हैं 'मेरे धर्म में सिद्धि है, अन्यत्र नहीं ।' ६. से जहेयं भगवया पवेदितं आसुपण्णेण जाणया पासया । सं० तद् यथा एतत् भगवता प्रवेदितं आशुप्रज्ञेन जानता पश्यता । आयुश भगवान् महावीर ने ज्ञान दर्शन पूर्वक धर्म का जैसे प्रतिपादन किया है, उसकी बंसी व्याख्या करे । Jain Education International परस्पर विरुद्ध विचार वाले व्यक्तियों के संसर्ग से अपरिपक्व - धर्मा शिष्यों की धारणा प्रांत हो जाती है। इसलिए उन व्यक्तियों के संस्तव का निषेध किया गया है । फिर भी ग्लान आदि के निमित्त अथवा अन्य किसी भी प्रयोजनवश उनका संसर्ग हो तब तत्वचर्चा के प्रसंग में मुनि उनसे कहे- तुम जानो, ये एकांगी वाद अहेतुक हैंहेतुशून्य हैं । ३६१ मिथ्या आग्रहयुक्त अथवा निरपेक्ष एकांतदृष्टि तत्त्व अथवा सत्य के निरूपण में बाधा उपस्थित करती है। इस प्रकार पूर्वोक्त प्रकार से जो एकांतदृष्टि से तत्व का प्रतिपादन करते हैं उन अहेतुवादियों का धर्म न सुजाख्यात होता है और न सुनिरूपित । दोनों एकांतवाद हैं। वास्तविकता को स्वीकार किए बिना अवास्तविकता को प्रमाणित नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार अवास्तविकता को स्वीकार किए बिना वास्तविकता को प्रमाणित नहीं किया जा सकता है । वास्तविकता और अवास्तविकता दोनों परस्पर सापेक्ष हैं । द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक नय से इन्हें जाना जा सकता है । वास्तविकता का बोध द्रव्यार्थिक नय से और अवास्तविकता का बोध पर्यायायिक नय से होता है। एकांतदृष्टि वाले ये सारे बाद परपस्पर विरोधी सिद्धांतों का प्रतिपादन करते हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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