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प्रस्तुताध्ययनस्य प्रतिपाद्यमस्ति मुनिना शीतोष्णी परीषौ विषोढव्यौ । अस्य चत्वार उद्देशका वर्तन्ते । तेषां विषयनिर्देशः एवमस्ति'---
१. ये असंयमिनस्ते भावनिद्रया सुप्ताः सन्ति । २. भावनिद्रामापन्ना दुःखमनुभवन्ति ।
३. नैव दुःखसनादेव केवलात् संयमानुष्ठानशून्यवा अक्रियया वा श्रमणो भवति ।
४. कषाया वमनीयाः ।
प्रारम्भः स्वपनजागरणावस्था
प्रस्तुताध्ययनस्य मधिकृत्य भवति । शरीरयात्रायें यथा जागरणस्य मूल्यमस्ति तथा निद्राया अपि मूल्यमस्ति । अध्यात्म साधनाक्षेत्रे केवलं जागरणस्यैव मूल्यमस्ति न तु निद्रायाः । अत एवोक्तम् - मुनयः सदा जाग्रति अमुनयश्च सदा सन्ति सुप्ताः दर्शनावरणीयकर्म विपाकोदयेन क्वचित् स्वपन्नपि पुरुषः सम्यग्दर्शनत्वात् संविग्नत्वाच्च वस्तुतः सुप्तो न भवति । दर्शनमोहनीयोदयो महानिद्रा वर्तते । यस्तमतिक्रान्तः स सदा जाग्रदेव । यश्च दर्शनमोहनीयोदयादापातितां भावनिद्रामनुभवति स सदा निद्राण एव । अयं स्वपनजागरणयोरलौकिको विधिः। नियुक्तिकारेण सुप्तावस्थाया दोषा जागृद स्वायाश्च गुणाः प्रतिपादिताः, यथा सुप्तमतमूच्छिता अप्रतिकारं दुःखं प्राप्नुवन्ति तथा भावनिद्रायां वर्तमानो जनः प्रचुरं दुःखं लभते । यथा विवेकी मनुष्यः प्रदीप्ते प्रज्वलने प्रपलायमानः सुखमनुभवति तथा सापायनिरपायविवेकशोऽपायं परिहरन् सुखी भवति । *
अध्य
अस्मिन् समताया: सिद्धान्त: प्रतिपादितोस्ति । आचाराङ्गं समताया: प्रतिपादकं सूत्रं वर्तते, अत एवास्य 'सामायिकम्' इति नाम विद्यते । 'तिविज्जो,' 'परमं प्रभृतिपदानि रचनाकालस्य प्राचीनत्वसूचकानि विद्यन्ते । अस्मिन् कर्मवादस्य प्रतिपादकानि सूत्राण्यपि उपलभ्यन्ते ।' अस्मिन् दर्शनपदं
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१. आचारांग नियुक्ति गाथा १९७,१९८
पहने मुत्ता अस्संजयन्ति बिए अति सइए न हु दुक्खेणं अकरणयाए व समणुत्ति ।। उभिउ अहिगारो उ बमणं कसायागं । पावविरईओ विउणो उ संजमो इत्थ मुक्खुति ॥ २. आचारांग चूणि, पृष्ठ १०२ : इदाणि मा सासिस्सं एगंतेण दुश्खेण धम्मो, तेण तम्मतपडिसेहणत्थं भगति ततिएण यदुक्खेण, अकरणयाए व समणोति ।
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आचारांगभाष्यम्
इस अध्ययन का प्रतिपाद्य है कि मुनि को शीत और उष्णदोनों प्रकार के परीषह सहने चाहिए। इसके चार उद्देशक हैं । उनके विषय इस प्रकार हैं
१. जो असंयमी हैं वे भावनिद्रा में सुप्त हैं ।
२. भावनिद्रा में सुप्त व्यक्ति दुःख का अनुभव करते हैं ।
३. केवल कष्ट सहने मात्र से अथवा संयम के अनुष्ठान से शून्य अक्रिया - निवृत्ति मात्र से कोई श्रमण नहीं होता ।
४. पापों को छोड़ना चाहिए।
प्रस्तुत अध्ययन का प्रारम्भ शयन और जागरण की अवस्था के विषय से होता है। शरीर यात्रा के लिए जैसे जागरण का मूल्य है वैसे ही निद्रा का भी मूल्य है। अध्यात्म की साधना के क्षेत्र में केवल जागरण का ही मूल्य है, निद्रा का नहीं इसीलिए कहा है मुनि सदा जागृत रहते हैं, मुनि सदा सुप्त रहते हैं। दर्शनावरणीय कर्म के विपाकोदय से कहीं सोता हुआ भी व्यक्ति सम्यग्दर्शनयुक्त तथा संयुक्त होने के कारण वास्तव में सुप्त नहीं होता । दर्शनमोहनीय कर्म का उदय महानिद्रा है । जो इसका अतिक्रमण कर देता है वह सदा जागृत ही रहता है । जो व्यक्ति दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से निष्पन्न भावनिद्रा का अनुभव करता है, वह सदा सोया हुआ ही रहता है। यह शयन और जागरण की अलौकिक विधि है । नियुक्तिकार ने सुप्ता अवस्था के दोषों तथा जागृत अवस्था के गुणों का प्रतिपादन किया है जैसे सुप्त मत्त और मूति व्यक्ति अत्रतिकारात्मक दुःख को प्राप्त होते हैं, वैसे ही भावनिद्रा का अनुभव करता हुआ प्राणी प्रचुर दुःख क है । जैसे विवेकी मनुष्य आग लग जाने पर पलायन कर सुख का अनुभव करता है वैसे ही विघ्न-बाधा अथवा दोष तथा निर्विघ्न अबाधा तथा अदोष का विवेक करने वाला व्यक्ति बाधा का परिहार करता हुआ सुखी होता है।
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इस अध्ययन में समता का सिद्धांत प्रतिपादित है । आचारांग समता का प्रतिपादक आगम है, इसीलिए इसका नाम 'सामायिक' है । इसमें प्रयुक्त 'त्रिविध', 'परम' आदि शब्द इस आगम के रचना काल की प्राचीनता के द्योतक हैं। इसमें कर्मवाद के प्रतिपादक सूत्र भी उपलब्ध होते हैं। इसमें 'दर्शन' शब्द विविध पदों के साथ दूध होकर प्रयुक्त हुआ है । यह 'दर्शन' पद 'सत्य' का वाचक है । मृषावाद
३. आचारांग निर्मुक्ति, गाथा २११ :
सुत्ता अमुणओ सया मुणओ सुत्तावि जागरा हुंति । धम्मं पच्च एवं निद्दासुसेण भइयव्वं ॥
४. वही, गाथा २१२,२१३ ।
५. आयारो, ३।३ ।
६,७. वही, ३।२८ |
5. वही, ३११८-२५ ।
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