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आचारांगभाष्यम् उक्तञ्च निशीथभाष्यचूणौं रागो त्ति वा संगो निशीथभाष्यचूणि में राग और संग को एकार्थक माना है। त्ति वा एगट्ठा। अहवा कम्मजणितो जीवभावो रागो, अथवा कर्मों से उत्पन्न जीव का भाव राग है और वही भाव जब कर्मों कम्मुणा सह संजोययंतो स एव संगो तुत्तो।'
के साथ संयोग कराता है तब वह संग कहलाता है। ७. सीओसिणच्चाई से निग्गंथे अरइ-रइ-सहे फरुसियं णो वेदेति ।
सं०-शीतोष्णसहः स निर्ग्रन्थः अरतिरतिसहः परुषतां नो वेदयति । निफ्रन्थ सर्दी और गर्मी को सहन करता है। वह अरति-संयम में होने वाले विषाद और रति-असंयम में होने वाले आह्लाद को सहन करता है, उनसे विचलित नहीं होता । वह कष्ट का वेदन नहीं करता।
भाष्यम् ७–शीतं-अनुकूला परिस्थितिः, उष्णम्- शीत का अर्थ है --अनुकूल परिस्थिति और उष्ण का अर्थ हैप्रतिकूला परिस्थितिः। य एतां द्वयीं परिस्थिति सहते प्रतिकूल परिस्थिति । जो इन दोनों प्रकार की परिस्थितियों को सहन स अरतिरतिसहो निर्ग्रन्थः क्वचनापि परुषतां न करता है, वह अरति और रति को सहन करने वाला निर्ग्रन्थ कहीं भी वेदयति। भाववैचित्र्यात साधकस्यापि चित्ते कदाचित् कष्ट--दुःख का वेदन नहीं करता। भावों के उथल-पुथल के कारण असंयमे रतिरुत्पद्यते संयमे च अरतिः । य एतद् युगलं साधक के मन में भी कभी असंयम के प्रति रति-अनुरक्ति और संयम प्रति सहिष्णुर्भवति तस्य परुषतायाः संवेदनं नहि भवति, के प्रति अरति-विरक्ति हो सकती है। जो इस युगल—अनुकूल और न च संयमे भारानुभूतिर्भवति', न च ग्रन्थिपातोऽपि प्रतिकूल परिस्थिति के प्रति सहिष्णु होता है उसको कष्ट का संवेदन जायते।
नहीं होता, संयम में भार की अनुभूति नहीं होती और न उसमें ग्रंथिपात ही होता है।
शीतका
८. जागर-वेरोबरए वीरे।
सं०-जागरः वैरोपरतः वीरः । जागृत और वैर से उपरत व्यक्ति वीर होता है।
भाष्यम् -जागर: वैराद् उपरतश्च पुरुषः वीरो जो जागृत है, वैर से उपरत है, वह पुरुष वीर है। यहां वीर भवति । अत्र वीरस्य लक्षणद्वयं प्रतिपादितम् । सुप्तः के ये दो लक्षण प्रतिपादित हैं। जो पुरुष सुप्त है वह कुछ भी पुरुषो न किञ्चिद् विशिष्टं ईरयति, तेन वीरोन विशिष्ट पुरुषार्थ नहीं करता, इसलिए वह वीर नहीं होता। जो जीवों भवति । जीवेषु शत्रुभावमापन्नोऽपि न वीरो भवितु- के प्रति शत्रुता का भाव रखता है, वह भी बीर नहीं हो सकता। मर्हति । हिंसा परिग्रहश्च वैरहेतुत्वमापद्यते । ताभ्यामन- वैरभाव के हेतु दो हैं-हिंसा और परिग्रह । जो पुरुष इन दोनों हेतुओं परतः न काञ्चिद् विशिष्टां प्रेरणां विदधाति । तेन से उपरत नहीं होता वह कुछ भी विशेष प्रेरणा नहीं दे सकता, कुछ जागरत्वं मैत्री च वीरस्य लक्षणे भवतः ।
भी विशेष नहीं कर सकता । इसलिए जागरण और मैत्री-ये दो लक्षण वीर पुरुष के होते हैं।
६. एवं दुक्खा पमोक्खसि ।
सं०-एवं दुःखात् प्रमोक्ष्यसि । हे वीर ! तू इस प्रकार जागरूकता और मैत्री के प्रयोग द्वारा दुःखों से मुक्ति पा जाएगा।
भाष्यम् ९–एवं जागरभावेन तत्परिणामभूतेन इस प्रकार जागृतभाव तथा उसके परिणामभूत मित्रभाव से मित्रभावेन च दु:खमुक्तिः शक्या भवति । सुप्तः पुरुषः दुःखमुक्ति हो सकती है । जो पुरुष सुप्त है, वह सभी जीवों का अमित्र १. निशीथभाष्यचूणि, भाग ३, पृष्ठ १९० ।
फारुसयं ण वेदेति, जहा भारवाहो अभिक्खणं भारवहणेण २. आचारांग चूणि, पृष्ठ १०७ : चाएति साहति सक्केइ जितकरणत्तेण य गुरुयमवि भारं ण वेदयति, ण वा तस्स वासे हि तुहाएति वा धाडेति वा एगट्ठा।
भारस्स उब्विययति, सो एवं फारुसयं अवेदंतो। ३. वही, पृष्ठ १०७ : फरुसियं-संजमो, ण हि फरुसत्ता ४. आप्टे, परुषः-Knotted; परुस्-A Joint, Knot संजमे तवसि वा कम्माणि लग्गति अतो संजमं तवं वा
(प्रथिः )।
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