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________________ अ० ३. शीतोष्णीष, उ० १.७-१४ सर्वेषां जीवानां अमित्रो भवति । तादृशः दुःखपरम्परां जनयति । न ततो मोक्षं लभते । अतः जागरभावः अत्यन्तमुपादेयः । तस्मिन् सति पुरुष हिंसायां परिग्रहे च न प्रवर्तते । १०. जरामच्चुवसोवणीए गरे, सययं मूढे धम्मं नाभिजाणति । सं० - जरामृत्युवशोपनीतः नरः सततं मूढः धर्मं नाभिजानाति । बुढापे और मृत्यु से परतन्त्र तथा मोह से सतत मूढ बना हुआ मनुष्य धर्म को नहीं जानता । । भाव्यम् १० – असी पुरुषः जरसा मृत्युना च वशं उपनीतोऽस्ति तथापि भावतः सततं सुप्तः मूढो भवति । तादृशः धर्मं नाभिजानाति । कर्मक्षयकारणं धर्मः । तस्य सम्यक् परिज्ञानं नहि भवति । भाष्यम् ११ जागृतः पुरुषः भावसुप्तान् मनुष्यान् शारीरिक-मानसिक दुःखैः आतुरीभूतान् अथवा कामातुरान् भयातुरान् वा दृष्ट्वा अप्रमत्तः - नित्य जागृतः परिव्रजति । ११. पासिय आउरे पाणे, अध्यमलो परिव्वए । सं० दृष्ट्वा बारान् प्राणान् अप्रमतः परिव्रजेत्। सुप्त मनुष्यों को आतुर देखकर जागृत पुरुष निरन्तर अप्रमत्त रहे । १२. मंता एवं मइमं ! पास । सं० - मत्वा एतत् मतिमन् ! पश्य । मतिमन् ! तू मननपूर्वक इसे देख । भाष्यम् १२ -- भावसुप्तस्य एते अपायाः भवन्ति, एतत् मत्वा मतिमन् ! जागरणं च हिताय भवति । १६७ होता है वैसा पुरुष दुःख की परंपरा को जन्म देता है। वह उससे मुक्त नहीं हो पाता। इसलिए जागरण अवस्था अत्यन्त उपादेय है। उसके होने पर पुरुष हिंसा और परियह में प्रवृत्त नहीं होता । भाष्यम् १३. - आरम्भ :- असंयमः हिंसादिजनिता प्रवृत्तिर्वा जगति यत्किञ्चिद् दुःखमस्ति तत्सर्व आरम्भजं विद्यते इति ज्ञात्वा निरारम्भो भव, धर्मजागरिकां कुरु । १४. माई पमाई पुणरेइ गन्भं । यह पुरुष बुढापे और मृत्यु से परतन्त्र है । फिर भी भावतः सतत सुप्त होने के कारण वह मूढ होता है। पैसा व्यक्ति धर्म को नहीं जानता । धर्म है— कर्मों को क्षीण करने का हेतु । मूढ व्यक्ति में उसका सम्यक् परिज्ञान नहीं होता । सं० यावी प्रमादी पुनरेति गर्भम् । मायी और प्रमादी मनुष्य बार-बार जन्म लेता है । Jain Education International स्वं पश्य स्वपनमहिताय तू देख सोना अहितकर होता है और जागना हितकर 2 १३. आरंभजं दुःखमिणं ति णच्चा । सं० - आरंभजं दुःखमिदं इति ज्ञात्वा । दुःख आरम्भ से उत्पन्न है- यह जानकर तू सतत अप्रमत्त रहने का अभ्यास कर । जामृत पुरुष भावसुप्त मनुष्यों को शारीरिक और मानसिक दुःखों से आतुरीभूत-आकुल व्याकुल अथवा कामातुर अथवा भयातुर देखकर अप्रमत्त- सदा जागृत रहकर परिव्रजन करता है। भावसुप्त पुरुष के ये दोष होते हैं- यह मानकर हे मतिमन् ! आरंभ का अर्थ है- असंयम अथवा हिंसा आदि से उत्पन्न इस संसार में जो कुछ भी दुःख है, वह सारा आरंभ से उत्पन्न है-- यह जानकर तुम निरारम्भ बनो, धर्म- जागरिका करो । प्रवृति For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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