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आचारांगभाष्यम्
भाष्यम् १४-धर्मस्य निष्पत्तिरस्ति अमृतोपलब्धिः , धर्म की निष्पत्ति है-अमरत्व की उपलब्धि, जहां पुरुष न जन्मता यत्र पुरुषो न जायते, न म्रियते। पूर्वापरशरीराभ्यां है और न मरता है। पूर्व शरीर का वियोग और दूसरे शरीर का योग वियोगयोगौ संसारः । तत्र पुनरपि जन्म पुनरपि ही संसार है। वहां बार-बार जन्म और बार-बार मृत्यु का चक्र मृत्यूरिति चक्र विद्यते। पुनर्जन्मनः कारणं निर्दिशति चलता रहता है। सूत्रकार इसका कारण निर्दिष्ट करते हैं-मायावी सत्रकार:-मायी प्रमादी पुरुषः पुनर्गर्भमायाति। और प्रमादी पुरुष बार-बार जन्म लेता है । मायावी का अर्थ है-वह मायी-विषयकषायवासितचेताः। तस्य परिणामशुद्धिर्न पुरुष जिसका चित्त विषय और कषाय से संस्कारित है । उस व्यक्ति के जायते । प्रमादी च नोचितमाचरणं कर्तमर्हति । तेन स परिणामों की शुद्धि नहीं होती। प्रमादी पुरुष उचित आचरण नहीं कर पुनः पूनर्जन्म गलाति। यस्य जन्म तस्य निश्चितं सकता। इसलिए वह बार-बार जन्म ग्रहण करता है। जिसका जन्म मृतत्वम् ।
होता है, निश्चित ही उसकी मृत्यु होती है। १५. उवेहमाणो सद्द-रूवेसु अंजू, माराभिसंकी मरणा पमुच्चति ।
सं०--उपेक्षमाणः शब्दरूपेषु ऋजुः, माराभिशङ्की मरणात् प्रमुच्यते । शब्द और रूप की उपेक्षा करने वाला ऋजु होता है। जो मृत्यु से आशंकित रहता है, वह मृत्यु से मुक्त हो जाता है।
भाष्यम १५-शब्दान रूपाणि च उपेक्षमाण : जो शब्द और रूप-इन इन्द्रिय विषयों की उपेक्षा करता है अनातूरो भवति, न इष्टानिष्ट विषयेषु रागद्वेषौ करोति, वह अनातुर होता है, अव्याकुल होता है। वह इष्ट-अनिष्ट विषयों के न च तदर्थं कञ्चिद् व्यापार करोति । अनया प्रति राग-द्वेष नहीं करता और न वह उनके लिए किसी प्रकार की अव्यापारात्मकोपेक्षया स ऋजुर्भवति । तादृशः पुरुषः प्रवृत्ति ही करता है। इस अप्रवृत्त्यात्मक उपेक्षाभाव से वह ऋजु होता मारं-मृत्यु अभिशंकमानः मरणात् प्रमुच्यते, अमृतत्व- है। वैसा व्यक्ति मार-मृत्यु की आशंका रखता हुआ मरण से मुक्त हो माप्नोतीति तात्पर्यम् । मृत्योर्भयं अमृतत्वस्य महत्त्वपूर्ण- जाता है । इसका तात्पर्य है कि वह अमरत्व को पा लेता है । अमरत्व मालम्बनमस्ति।
की प्राप्ति का महत्त्वपूर्ण आलम्बन है-मृत्यु का भय ।
१६. अप्पमत्तो कामेहि, उवरतो पावकम्मेहि, वीरे आयगुत्ते जे खेयण्णे ।
सं०--अप्रमत्तः कामेषु उपरत: पापकर्मेभ्यः वीरः आत्मगुप्तः य: क्षेत्रज्ञः । जो क्षेत्रज्ञ होता है वह कामनाओं के प्रति अप्रमत्त, असंयत प्रवृत्तियों से उपरत, वीर और आत्मगुप्त-अपने आप में सुरक्षित होता है।
भाष्यम् १६-क्षेत्रज्ञः पुरुषः स्वपराक्रमेण अमृतत्व- क्षेत्रज्ञ पुरुष अपने पराक्रम से अमरत्व को प्राप्त कर लेता है। माप्नोति । क्षेत्रम्-शरीरम्, कामः, इन्द्रियविषयाः, क्षेत्र शब्द के पांच अर्थ हैं-शरीर, काम, इन्द्रिय-विषय, हिंसा, और हिंसा, मनोवाक्कायप्रवृत्तिश्च' । यः पुरुषः एतत्सर्वं मन-वचन-काया की प्रवृत्ति । जो पुरुष इन सबको जानता है वह क्षेत्रज्ञ जानाति स क्षेत्रज्ञो भवति । सः कामान् प्रति अप्रमत्तः होता है । वह कामनाओं के प्रति अप्रमत्त अथवा साबधान (जागरूक), अवहितो वा भवति, हिंसादिपापकर्मभ्यः उपरत:, हिंसा आदि पापकर्मों से उपरत, संयमवीर्य से वीर तथा मन, वचन संयमवीर्येण वीरः, मनोवाक्कायैश्च आत्मगुप्तो जायते। और शरीर से आत्मगुप्त हो जाता है ।
१. (क) गीता, १३।१-६
इदं शरीरं कौन्तेय ! क्षेत्रमित्यभिधीयते। एतद् यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ॥ क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत! क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोनिं यत् तज्ज्ञानं मतं मम ॥ तत्क्षेत्रं यच्च यादृक् च यद् विकारि यतश्च यत् । स च यो यत् प्रभावश्च तत् समासेन मे शृणु ॥
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिविविधैः पृथक् । ब्रह्मसूत्रपदंश्चव हेतुमभिर्विनिश्चितैः॥ महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च । इन्द्रियाणि दशकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥ इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः ।
एतत् क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ।। (ख) तुलना, गीता १३१७-११। (ग) द्रष्टव्यम्-आयारो, ४॥२ भाष्यम् ।
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