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________________ १०० क्रियमाणं कृतमिति सिद्धान्तयुक्त्या समये समये विमुच्यमानाः विमुक्ता इति निर्दिश्यन्ते । पारम् - संयमः । तस्याराधनपराः पारगामिनः । ३६. लोभं अलोभेण दुगंछमाणे, लद्धे कामे नाभिगाहइ । सं०-लोभ अलोभेन जुगुप्समानः लब्धान् कामान् नाभिगाहते । जो पुरुष अलोभ से लोभ को पराजित कर देता है, वह प्राप्त कामों में निमग्न नहीं होता । माध्यम् १६ धान् कामान् अभिगाहते इति पूर्व ( सू० ३१) उक्तम् लब्धान् कामान् नाभिगाहते' इति कथं सम्भवेत् ? अस्य समाधानं सूत्रकारः करोति यः पुरुषः लोभं अलोभेन प्रतिकुर्वन्नस्ति स लब्धान् कामान् नाभिगाहते। लोभोऽपि चित्तधर्मः भावो वा । अलोभोऽपि वित्तधर्मः । यथा यथा अलोभात्मकश्चित्तधर्मः अभ्यस्तो भवति तथा तथा लोभात्मकश्चित्तधर्मो हीनो भवति । अनेन अभ्यासक्रमेण लोभः अलोभेन अभिभूयते । 1 भाष्यम् २७ गृहादभिनिष्क्रमणकारिणः सर्वे तुल्या नहि भवन्ति तेषु कश्चित् लोभस्य उन्मूलनं कृत्वा अभिनिष्क्रान्तो भवति, स अकर्मा सन् ध्यानस्थः ज्ञान दर्शनावरणकर्ममुक्तो वा जानाति पश्यति, विषयाणां परिग्रहस्य च विपाकान् साक्षात्करोतीति तात्पर्यम् । व्याख्याया अपरो नयः कर्मणः प्रवृत्तेर्वा हेतुरस्ति लोभः । यो लोभ विनीय अभिनिष्कामति स अकर्मा प्रवृत्तिचक्रस्य अपनयनं कृत्वा ज्ञाता द्रष्टा भवति वैभाविक कर्तृत्वं च तनूकरोति । ३८. पडिलेहाए णावकंखति । आचारांगभाष्यम् 'क्रियमाण कृत' इस सिद्धांत की युक्ति से वे साधक प्रतिक्षण विमुच्यमान होने के कारण विमुक्त कहलाते है। पार का अर्थ है - संयम । उसकी आराधना में संलग्न व्यक्ति पारगामी कहलाते हैं । ३७. विणइत्तु लोभं निक्खम्म, एस अकम्मे जाणति- पासति । सं०-- विनीय लोभं निष्क्रम्य, एष अकर्मा जानाति पश्यति । जो लोभ को छोड़कर प्रवजित होता है, वह अकर्मा होकर जानता देखता है। माध्यम् २८ एकः कश्चित् सकर्मा-साकांक्षः सन् अभिनिष्क्रान्तः, स तथाविधक्षयोपशमवशाद् विषयाणां परिग्रहस्य च विपाकप्रतिलेखया- तत्पर्यालोचनया तान् नावकाङ्क्षति । उपलब्ध कामों में निमग्न होता है - ऐसा पहले ( सूत्र ३१ में ) कहा गया है। 'उपलब्ध कामों में निमग्न हो यह कैसे संभव हो सकता है ? सूत्रकार इसका समाधान इस प्रकार करते हैं - जो पुरुष अलोभ के द्वारा लोभ का प्रतिकार करता है, वह उपलब्ध कामों में निमग्न नहीं होता । Jain Education International लोभ भी चित्त का धर्म या भाव है। अलोभ भो चित्त का धर्म है। जैसे-जैसे लोभात्मक चितधर्म का अभ्यास होता है वैसे-वैसे लोभात्मक चित्तधर्म क्षीण होता जाता है। इस अभ्यास-क्रम से लोभ अलोभ के द्वारा पराजित हो जाता है। घर से अभिनिष्क्रमण करने वाले सभी साधक समान नहीं होते उनमें कोई साधक लोभ का उन्मूलन कर अभिनिष्क्रमण करता है । वह अकर्मा अर्थात् ध्यानस्थ अथवा ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों से मुक्त होकर जानता देखता है। इसका तात्पर्य है कि वह विषय और परिग्रह के विपाकों का साक्षात्कार कर लेता है । सं०- प्रतिलेखया नावकांक्षति । पर्यालोचन के द्वारा कोई सकर्मा साधक विषयों की आकांक्षा नहीं करता । दूसरी दृष्टि से इसकी व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है-कर्म अथवा प्रवृत्ति का हेतु है-सोम जो सोभ को दूर कर अभिनिष्क्रमण करता है, यह 'अकर्मा' व्यक्ति प्रवृत्ति चक्र से मुत होकर ज्ञाता द्रष्टा होता है और वह वैभाविक कर्तुरेव को क्षीण कर देता है। कोई एक व्यक्ति सकर्मा- मन में किसी आकांक्षा को लिए अभिषिकांत होता है, यह मोहनीय कर्म के विशिष्ट क्षयोपशम के कारण विषयों और परिग्रह के विपाक का पर्यालोचन करता है और उनकी आकांक्षा से मुक्त हो जाता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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