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अ० २. लोकविचय, उ० २. सूत्र ३६-४१
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३६. एस अणगारेत्ति पवुच्चति ।
सं०- एष अनगार इति प्रोच्यते । वह अनगार कहलाता है।
भाष्यम ३९-यः लोभ अलोभेन प्रतिकरोति, विष- जो लोभ को अलोभ से पराभूत करता है और जो विषयो यान् परिग्रहञ्च नाभिलषति, स एष अनगार इत्युच्यते। और परिग्रह की अभिलाषा नहीं करता, वह अनगार कहलाता है।
४०. अहो य राओ य परितप्पमाणे, कालाकालसमझाई, संजोगट्टी अदालोभी, आलुपे सहसक्कारे, विणिविचित्ते, एत्थ
सत्थे पुणो-पुणो। सं०-अहनि च रात्रौ च परितप्यमानः, कालाकालसमुत्थायी, संयोगार्थी अर्थलोभी, आलुम्पः सहसाकारः, विनिविष्टचित्तः, अत्र शस्त्रं पुनः पुनः । वह रात-दिन परितप्त रहता है, काल या अकाल में अर्थार्जन का प्रयत्न करता है, संयोग का अर्थी होकर अर्थ-लोलुप, चोर या लुटेरा हो जाता है । उसका चित्त परिवार या विषय-सेवन में ही लगा रहता है। वह पुनः पुनः शस्त्र-संहारक बनता है।
भाष्यम् ४०-पूर्वालापके (सूत्र ३) धृतिमत: पुरुषस्य पूर्व आलापक (सूत्र ३) में धृतिमान् पुरुष का निरूपण किया है। निरूपणं कृतम् । प्रस्तुतालापके धृतिरहितस्य पुरुषस्य प्रस्तुन आलापक में धृति-रहित पुरुष का निरूपण किया जा रहा है। निरूपणं क्रियते। धृतिविरहित: पुरुष: लोभं विषयान् धृतिविहीन पुरुष लोभ, विषयों और परिग्रह का परिहार नहीं करता, परिग्रहञ्च न परिहरति, तेन स परितापादिकमनु- इसलिए वह परिताप आदि का अनुभव करता है। भवति ।
४१. से आय-बले, से णाइ-बले, से मित्त-बले, से पेच्च-बले, से देव-बले, से राय-बले, से चोर-बले, से अतिहि-बले, से
किवण-बले, से समण-बले। सं०-स आत्मबलः, स ज्ञातिबलः, स मित्रबलः, स प्रेत्यबलः, स देवबलः, स राजबलः, स चौरबलः, स अतिथिबलः, स कृपणबलः, स श्रमणबलः । वह शरीरबल, ज्ञातिबल, मित्रबल, पारलौकिकबल, देवबल, राजबल, चोरबल, अतिथिबल, कृपणबल और श्रमणबल से युक्त बनना चाहता है।
भाष्यम् ४१ -मनुष्यः जीवनयात्रार्थमनेकेषां बलानां मनुष्य अपनी जीवन-यात्रा के लिए अनेक प्रकार के बलों का संग्रहं करोति ।
संग्रह करता है। ___ आत्मबलः--आत्मन:-शरीरस्य बलं अस्ति यस्य आत्मबल-आत्मा का अर्थ है-शरीर । जो शरीर बल से स आत्मबलः । लोभाविलः पुरुषः भोगार्थं आत्मन:- संपन्न है वह आत्मबल होता है। लोभ से कलुषित पुरुष भोगों के लिए शरीरस्य वृद्धये मद्यं मांसञ्च सेवते।
शरीर को पुष्ट करने के प्रयोजन से मद्य और मांस का सेवन करता है । जातिबलः मित्रबलश्च --स्वजने मित्रे च बलवति अहं ज्ञातिबल, मित्रबल-'स्वजनों और मित्रों के बलवान होने पर बलवान भविष्यामि इति चिन्तया स ज्ञातिबलं, मित्र- मैं बलवान होऊंगा'-इस चिंतन से वह ज्ञातिबल और मित्रबल को बलञ्च अभिलषति ।
अभिलाषा करता है। प्रेत्यबल: देवबलश्च-परलोकार्थं देवप्रसन्नतार्थञ्च प्रेत्यबल, देवबल-परलोक के लिए और देवों की प्रसन्नता के पशुबलिं करोति ।
लिए वह पशुबलि करता है। राजबल:-आजीविकायै जयाय वा राजानं सेवते । राजबल-आजीविका या विजय के लिए राजा की सेवा
करता है। चौरबल:-चौरभागं प्राप्स्यामीति चौरानुपचरति। चोरबल-चोरी का हिस्सा प्राप्त होगा, इस दृष्टि से चोरों
का सहयोग करता है।
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