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________________ अ० ३. शीतोष्णीय, उ० ३. सूत्र ६३-६७ १८६ यावत् सत्यं समभिज्ञातं न भवति तावद् वस्तु प्रति वह सम्यग् रूप से ज्ञात नहीं होता तब तक वस्तु के प्रति होने वाला जायमानं प्रियाप्रियसंवेदनग्रहणं विमुक्तं न स्यात् । प्रिय संवेदन अथवा अप्रिय संवेदन का ग्रहण नहीं रुकता। धर्मध्यान के अपायविचयविपाकविचयात्मकेन धर्मध्यानेन पदार्थ- दो भेदों-अपायविचय और विपाकविचय से पदार्थ सम्बन्धी दोषों संबंधिनः अपायान् तद्धेतुकान् विपाकांश्च समभिज्ञायैव तथा उनसे होने वाले परिणामों को सम्यग् रूप से जानकर ही पुरुष पुरुषः आत्मनिग्रहं कर्तुं शक्नोति। आत्म-निग्रह कर सकता है। ६६. सच्चस्स आणाए उवट्ठिए से मेहावी मारं तरति । सं० ---सत्यस्य आज्ञया उपस्थितः स मेधावी मारं तरति । जो सत्य की आज्ञा में उपस्थित है वह मेधावी मृत्यु को तर जाता है। भाष्यम् ६६-य: सत्यस्य' आज्ञया उपस्थित : स जो सत्य की आज्ञा में उपस्थित है, वह मेधावी मृत्यु को तर मेधावी मारं तरति। आज्ञा-आगमः, अन्तर्दृष्टिः , जाता है । आज्ञा के तीन अर्थ हैं-आगम, अन्तर्दष्टि, सूक्ष्म पदार्थों सूक्ष्मार्थपरिज्ञानमिति। मारः-मृत्युः अथवा कामः, का ज्ञान । मार का अर्थ है-मृत्यु अथवा काम । काम के दो प्रकार इच्छाकामः मदनकामश्च । असत्यस्योपस्थानेनैव मूर्छा हैं-इच्छाकाम और मदनकाम। असत्य की आराधना से ही भ्रान्तिर्वा प्रवर्धते, ततः कामोऽभिजायते। सत्यस्य मूर्छा और भ्रान्ति बढती है। उससे काम उत्पन्न होता है। सत्य साक्षादुपस्थानेनैव कामः अन्तं नेतुं शक्यः । की साक्षात् आराधना से ही काम-मृत्यु अथवा कामनाओं का अन्त किया जा सकता है। ६७. सहिए धम्ममादाय, सेयं समणुपस्सति । सं०---सहितः धर्ममादाय श्रेयः समनुपश्यति । सहिष्णु साधक धर्म को स्वीकार कर श्रेय का साक्षात् कर लेता है। भाष्यम् ६७-सहितः-सहनशीलः । येन अनुकला सहित का अर्थ है---सहनशील । जिसने अनुकूल और प्रतिकल प्रतिकूला च परिस्थिति ः सोढा स धर्म समादाय श्रेयः परिस्थितियों को सहन किया है, वह सहिष्णु साधक धर्म को स्वीकार समनुपश्यति। यः प्रेयसि एव मूच्छित : स कथं कर श्रेय का साक्षात् कर लेता है। जो केवल प्रेयस् में ही मूच्छित श्रेयःसमनदर्शी भवेत ? श्रेयः-इन्द्रियातीतं पदार्थातीतं रहता है वह श्रेय का साक्षात्दी कैसे हो सकता है ? धेय का अर्थ च सुखं हितं वा अथवा कल्याणं, यथा है-...इन्द्रियातीत और पदार्थातीत सुख या हित अथवा कल्याण । जैसेसोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं । _ 'सुन कर ही कल्याण जाना जाता है और सुनकर ही पाप उभयं पि जाणई सोच्चा, जं छेयं तं समायरे ॥५ जाना जाता है। दोनों को सुनकर जाना जाता है। जो श्रेयस्कर है, उसका तुम आचरण करो।' १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १२४ : दुवालसंग वा प्रवचनं सच्चं। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १५३ : सत्यः-आगमः। (ग) द्रष्टव्यम्-३४० भाष्यम् । २. (क) आचारांग चुणि, पृष्ठ १२४ : मारणं मारयति मारो, जं मणितं संसारो। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १५३ : मार-संसारम् । ३. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १२४ : तेण तित्वगर भासितेण अ सच्चेण सहितो तप्पुब्वगं चरितं धम्म आदाय । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १५३ : सहितो-ज्ञानादियुक्तः सह हितेन वा युक्तः सहितः। (ग) आप्टे, सहित: Borne, Endured. ४. (क) आचारांग चणि, पृष्ठ १२४ : सेयं इति पसंसे अत्थे. सयंति तमिति सेओ, जं भणितं मोक्खं । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १५३ : श्रेयः पुण्यमात्महितं वा। ५. बसवेआलियं, ४ गाथा ११ Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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