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________________ १६० आचारांगभाष्यम् ६८. दुहओ जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए, जंसि एगे पमादेति । सं०-द्वितः जीवितस्य परिवन्दन-मानन-पूजनाय, यस्मिन् एके प्रमाद्यन्ति । राग और द्वेष के अधीन होकर मनुष्य वर्तमान जीवन के लिए तथा प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए चेष्टा करता है। कुछ साधक भी उनके लिए प्रमाद करते हैं। भाष्यम् ६८–मनुष्या द्वाभ्यां रागद्वेषाभ्यामभिभूता जो पुरुष राग और द्वेष-इन दोनों से अभिभूत हैं वे अपने जीवितस्य हेतोः, परिवंदनमाननपूजनहेतोश्च' प्रमत्ताः जीवन के लिए तथा प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए प्रमत्त होते हैं, सन्ति, किन्तु एके प्रव्रज्यामादायापि असहिष्णुत्वात् किन्तु कुछ प्रव्रज्या ग्रहण करके भी असहिष्णु होने के कारण जीवन, तदर्थं प्रमाद्यन्ति । प्रशंसा आदि के लिए प्रमाद करते हैं । ६६. सहिए दुक्खमत्ताए पुट्ठो णो झंझाए। सं०-सहितः दुःखमात्रया स्पृष्टः नो 'झझाए। सहिष्ण साधक दुःखमात्रा से स्पृष्ट होने पर व्याकुल न हो। भाष्यम् ६९-सहनशीलो मुनिः दुःखमात्रया सहिष्णु मुनि दुःखमात्रा-शीत और उष्ण (अनुकूल और शीतोष्णः परीषहैः स्पृष्टः नो झञ्झाप्रताडित इव प्रतिकूल) परीषहों से स्पृष्ट होने पर झंझा से प्रताड़ित व्यक्ति की व्याकुलमतिर्भवेत् । शीतै : परिषहैः रागझञ्झा समुत्पद्यते भांति आकुल-व्याकुल न बने । शीत परीषहों से राग का झंझावात उष्णश्च द्वेषझञ्झा । तां द्विविधामपि व्याकुलतां अकृत्वा उत्पन्न होता है और उष्ण परीषहों से द्वेष का झंझावात उठता है । समत्वे स्थातुमर्हति। वह सहिष्णु साधक दोनों प्रकार की व्याकुलताओं में न फंस कर समता में स्थित हो सकता है। ७०. पासिमं दविए लोयालोय-पवंचाओ मुच्चइ । -त्ति बेमि । सं०-दृष्टिमान् द्रव्यः लोकालोकप्रपञ्चात् मुच्यते । -इति ब्रवीमि । दृष्टिमान और द्रव्य-रागद्वेष से अपराजित साधक लोक के दृष्ट प्रपंच से मुक्त हो जाता है। ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् ७०-येन पुरुषेण शीतोष्णपरीषहान् सोढुं जिस साधक को शीत और उष्ण-अनुकूल और प्रतिकूल दष्टिरुपलब्धा स दष्टिमान् द्रव्यः-रागद्वेषाभ्यामनभि- परीषहों को सहने की दृष्टि उपलब्ध है, वह दष्टिमान होता है। वह भूत : लोकालोक प्रपञ्चाद् मुच्यते । लोकः-दृश्यमानः, द्रव्य अर्थात् राग-द्वेष से अपराजित व्यक्ति लोक-अलोक के प्रपंच से अलोकः-अदृश्यमानः अथवा लोके आलोक्यमानः- मुक्त हो जाता है। लोक का अर्थ है-दृश्यमान और अलोक का अर्थ लोकालोकः, तस्य प्रपञ्चः-बन्धनस्य विस्तारः । द्रव्यः है—अदृश्यमान अथवा लोकालोक का अर्थ है-लोक में दिखाई देने पुरुषः दृश्यमानानां संबंधानां अदृश्यमानानां च कर्म- वाला । उसका प्रपंच अर्थात् बन्धन का विस्तार। द्रव्य अर्थात् वीतराग बन्धनानां प्रपञ्चाद् मुक्तो भवति । पुरुष दृश्यमान सम्बन्धों के तथा अदृश्यमान कर्मबन्धों के प्रपंच से मुक्त हो जाता है। १. द्रष्टव्यम्-आयारो, ११२१ । २. देशीशब्दः। ३. 'पासिम' अस्य पदस्य 'पश्य इम', 'दृष्ट्वा इम' अथवा 'दृष्टिमान्'–एतानि त्रीणि रूपाणि संस्कृते कर्तुं शक्यानि । अस्माभिः एक पदमादाय दृष्टिमानिति रूपं कृतम् । (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १२५ : पस्सतीति पासिम, कि एतं ? जं मणितं-संधि लोगस्स जाव णो झंझाएत्ति एतं पस्सति । (२) आचारांग वृत्ति, पत्र १५४ : उद्देशकावेरारम्यानन्तर सूत्रं यावत् तमिममयं पश्य-परिच्छिन्द्धि । (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १२५ : लोकतीति लोगो, आलोक्कतीति आलोको, लोगालोगो, जो जेहिं जाए वट्टति सो तेणप्पगारेण आलोक्कति, जं मणितं-- दिस्सति, तंजहा-नारइयत्तेण, एवं सेसेसुवि पिहिप्पिहेहि सरीरवियप्पेहि आलोक्कति सरीरे। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १५४ : आलोक्यत इत्यालोकः, कर्मणि घन , लोके चतुर्दशरज्ज्वात्मके आलोको लोकालोकः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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