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अ०३. शीतोष्णीय, उ० ३-४. सूत्र ६८-७३
चउत्थो उद्देसो : चौथा उद्देशक
सपना
७१. से वंता कोहं च, माणं च, मायं च, लोभं च ।
सं.–स वमिता क्रोधं च मानं च मायां च लोभं च । साधक क्रोध, मान, माया और लोम का वमन करने वाला होता है।
भाष्यम् ७१-इदानीं लोकालोकप्रपञ्चमुक्तेः प्रक्रिया अब लोकालोक के प्रपंच से मुक्त होने की प्रक्रिया बतलाई जा उपदिश्यते-स शीतोष्णपरीषहसहिष्णुर्मनिः कषाय- रही है-वह शीत और उष्ण परीषहों को सहने वाला मुनि कषायों मुक्त्या मुक्तो भवति । कषायश्च क्रोधमानमायालोभ- की मुक्ति होने पर मुक्त हो जाता है। कषाय चार प्रकार का हैभेदात् चतुर्विधः । तत्र उपघातादिहेतुजनिताऽध्यवसायः क्रोध, मान, माया और लोभ । उपघात आदि हेतुओं से उत्पन्न क्रोधः । उत्कर्षाध्यवसायो मानः । वञ्चनाध्यवसायो अध्यवसाय क्रोध है । उत्कर्ष का अध्यवसाय है मान। वञ्चना का माया। तृष्णापरिग्रहाध्यवसायो लोभः ।
अध्यवसाय है माया और तृष्णा तथा परिग्रह का अध्यवसाय है लोभ । __ मुक्तिमिच्छः पुरुषः एतं चतुर्विधकषायं वमिता' जो पुरुष मुक्ति चाहता है वह इन चारों कषायों का वमन भवति । तं उपशमं क्षयं वा नयतीति तात्पर्यम् । करने वाला होता है। इसका तात्पर्य है कि वह इन कषायों का
उपशम या क्षय कर देता है। ७२. एवं पासगस्स सणं उबरयसत्थस्स पलियंतकरस्स ।
सं०-एतद् पश्यकस्य दर्शनं उपरतशस्त्रस्य पर्यन्तकरस्य । यह अहिंसक और निरावरण द्रष्टा का दर्शन है।
भाष्यम् ७२-एतत् कषायविरेचनं पश्यकस्य दर्शन- कषायों के विरेचन का यह सिद्धान्त पश्यक-द्रष्टा का दर्शन मस्ति । निरावरणत्वात् सर्वं पश्यति इति पश्यः, स एव है। निरावरण होने के कारण जो सब कुछ देखता है वह पश्य है। पश्यकः-भगवान् महावीरः। शस्त्रं द्रव्यभावभेद- वही पश्यक है। भगवान् महावीर पश्यक-द्रष्टा हैं। भिन्नम्। द्रव्यशस्त्रमग्न्यादयः, भावशस्त्रं कषायः शस्त्र के दो भेद हैं-द्रव्य शस्त्र और भाव शस्त्र। अग्नि असंयमो वा।
आदि द्रव्य शस्त्र हैं और कषाय अथवा असंयम भाव शस्त्र हैं। उपरतं शस्त्रं यस्य स उपरतशस्त्रः । यः घात्यकर्मणां जो शस्त्रों से उपरत है, वह उपरतशस्त्र है। जो घात्यको पर्यन्तं करोति स पर्यन्तकरः । यः उपरतशस्त्रो भवति स का अन्त करता है, वह पर्यन्तकर है। जो उपरतशस्त्र होता है पर्यन्तकरो भवति। यश्च पर्यन्तकरो भवति स पश्यको वह पर्यन्तकर होता है। जो पर्यन्तकर होता है, वह पश्यक होता है। भवति । तस्य दर्शनमिदम् ।
उसी का यह दर्शन है। ७३. आयाणं (णिसिद्धा?) सगडन्मि।
सं०--आदानं (निषेध्य) स्वकृतभित् । जो पुरुष कर्म के आदान-कषाय को रोकता है, वही अपने किए हुए कर्म का भेवन कर पाता है।
माष्यम् ७३-अत्र नाशंकनीयं, कृतानि कर्माणि यह आशंका नहीं करनी चाहिए कि जब किए हुए कर्मों को भोक्तव्यानि । कथं तेषां पर्यन्तं कर्तुं शक्यम् ? आदानस्य भोगना ही होता है तब उनका अन्त कैसे किया जा सकता है? निरोधे पूर्वाजितानां कर्मणां भेदनं संभाव्यतामेति । आदान का निरोध करने पर पूर्वार्जित कर्मों का भेदन सम्भव बनता
बानकषायः। यः आदानं निरुणद्धि स है। आवान का अर्थ है-कषाय । जो आदान का निरोध करता है वह स्वतस्य कर्मणः भेत्ता भवति । निरोधे अपूर्वकर्मणां अपने द्वारा कृत कर्मों का भेदन करने वाला होता है। निरोध में नए
२. देखें-आयारो, ११९ ।
१. आचारांग चूणि, पृष्ठ १२६ : वमगंति वा विरेयणंति वा विगिचणंति वा विसोहगंति वा एगट्ठा।
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