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________________ अ० ५. लोकसार, उ० ४. सूत्र ८५-८७ २७५ ८५. पुव्वं वंडा पच्छा फासा, पुव्वं फासा पच्छा दंडा। सं०-पूर्व दण्डाः पश्चात् स्पर्शाः, पूर्व स्पर्शाः पश्चाद् दण्डाः । कहीं-कहीं पहले बंड और पीछे स्पर्श-इन्द्रिय-सुख होता है, कहीं-कहीं पहले स्पर्श और पीछे वंड होता है। भाष्यम् ८५-इदानीं आलम्बनसूत्रयोः (सूत्र ८५,८६) प्रस्तुत आलापक में दो आलंबन सूत्रों (८५,८६) का निर्देश है । निर्देशः । स्पर्शाः-इन्द्रियसुखम, तस्य दण्डेन व्याप्तिः स्पर्श का अर्थ है-इन्द्रिय-सुख । उसकी दंड के साथ व्याप्ति है। विद्यते। जैसे-जहां स्पर्श है, वहां दंड है और जहां दंड है, वहां स्पर्श है। स तदथिनं तापं जनयित्वा पूर्व दण्डयति, तेनोक्तम्- जो व्यक्ति स्पर्श का इच्छुक है, स्पर्श उसमें ताप उत्पन्न कर 'पूर्व दण्डाः पश्चात स्पर्शाः' । तस्य आकस्मिके योगे पूर्व उसको पहले ही दंडित कर देते हैं। इसलिए कहा है-- पहले दंड और स्पर्शाः पश्चात् अतृप्तिप्रतिपादकत्वेन शक्तेः विनाश- पीछे स्पर्श । उसका आकस्मिक योग होने पर पहले स्पर्श होते हैं और कत्वेन च दण्डाः भवन्ति । अस्यार्थस्य संवादित्वमस्मिन् पीछे अतृप्ति को पैदा करने और शक्ति का विनाश करने के कारण श्लोके लभ्यते दंड होते हैं । इस अर्थ की संवादिता प्रस्तुत श्लोक में प्राप्त होती है - आरम्भे तापकान् प्राप्ती, अतृप्तिप्रतिपादकान् । 'प्रारंभ में काम की उपलब्धि अत्यन्त संतापकारक होती है। अन्ते सुदुस्त्यजान् कामान्, कामं कः सेवते सुधीः ।। उपलब्धि के पश्चात् उनका सेवन अतृप्ति का कारण बनता है और अंत में उनको छोडना बहुत कष्टप्रद हो जाता है। ऐसे 'काम' का सेवन कौन विद्वान् व्यक्ति करेगा?' ८६. इच्चेते कलहासंगकरा भवंति । पडिलेहाए आगमेत्ता आणवेज्जा अणासेवणाए त्ति बेमि । सं०-इत्येते कलहासङ्गकराः भवन्ति । प्रतिलिख्य आगम्य आज्ञापयेद् अनासेवनाय इति ब्रवीमि । ये काम कलह और आसक्ति उत्पन्न करने वाले होते हैं। आगम की शिक्षा को ध्यान में रखकर आचार्य उनके अनासेवन की आज्ञा बे, ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् ८६-एते कामाः कलहकरा आसंगकराश्च ये काम कलह और आसक्ति उत्पन्न करने वाले होते हैं । काम में भवन्ति । अस्मिन् प्रवृत्तस्य अतो निवृत्तस्य च के दोषा प्रवृत्त और निवृत्त होने वाले मनुष्यों के क्या दोष-गुण होते हैं, इसको गुणाश्च इति श्रुतज्ञानप्रतिलेखनया आगम्य तेषामनासेव- श्रुतज्ञान (आगम) के सम्यग् अवबोध से जान कर आचार्य शिष्यों को नाय आज्ञापयेत् । काम के अनासेवन की ओर प्रेरित करे। ८७. से णो काहिए जो पाणिए णो संपसारए णो ममाए णो ककिरिए वइगुत्ते अज्झप्प-संवुडे परिवज्जए सदा पावं । सं०-स नो काथिकः, नो 'पासणिए', नो संप्रसारकः, नो ममायकः, नो कृतक्रियः, वाग्गुप्तः, अध्यात्म संवृतः, परिवर्जयेत् सदा पापम् । ब्रह्मचारी काम-कथा न करे, वासनापूर्ण दृष्टि से न देखे, परस्पर कामुक भावों का प्रसारण न करे, ममत्व न करे, शरीर की साजसज्जा न करे, मौन करे, मन का संवरण करे, सदा पाप का परिवर्जन करें। भाष्यम् ८७ –ब्रह्मचारी पुरुषः जातिकुलनेपथ्य- ब्रह्मचारी पुरुष जाति, कुल, नेपथ्य, शृंगार आदि की कथा न शृगारादिकथां न कुर्यात्, नो 'पासणिए'– वासनोद्दीप- करे । वह वासना को उद्दीप्त करने वाले पदार्थों को न देखे । वह कानां वस्तूनां दर्शको भवेत् । नो संप्रसारको भवेत्- संप्रसारक न हो- एकान्त में स्त्रियों के समीप न बैठे और न एकान्त १. इष्टोपदेश, श्लोक १७। ३. (क) चू। प्राश्निकपदं व्याख्यातमस्ति-पासणितत्तंपिण २. आचारांग चूणि, पृष्ठ १८७ : एते कामा इत्थिसंथवा वा करेति, कयरा अम्ह सा भवति सुमंडिता वा कलाकुसला कलहकरा जहा सीयाए दोवईए य, एवमादी कलहकरा, वा, आहद्दसु पासणितत्तं करेइ, सुमिणे वा पुच्छिओ कलह एव संगो, महवा कलहो-दोसो, संगो-रागो, अहवा वागरेइ, अण्णतरं वा अट्ठावतं । संगति सिंग बुच्चति, सिंगभूतं च मोहणिज्जं कम्म, तस्सवि (आचारांग चूणि, पृष्ठ १८७) इत्थीओ सिंगभूता। Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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