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________________ २६२ ५१. इति कम्मं परिणाय, सव्वसो से ण हिंसति । संजमति णो पगन्भति । सं० इति कर्म परिज्ञाय सर्वशः स न हिंसति । संयच्छते नो प्रगल्भते । इस प्रकार कर्म को पूर्ण रूप से जान कर वह किसी की हिंसा नहीं करता। वह इन्द्रियों का संयम करता है, उनका उच्छृंखल व्यवहार नहीं करता । भाष्यम् २१ एवं कर्म तस्य वन्धहेतुं च परिज्ञाय सर्वशः स प्राणिनो न हिनस्ति अहिंसाया मूलमस्ति संयम:, अतः स इन्द्रियाणां मनसः प्रवृत्तीनां च संयमं करोति । संयमस्य मूलमस्ति लज्जा आत्मानुशासनं वा लज्जावान् पुरुषः रहस्यपि अनावरणीयं नाचरति न घृष्टतामवलम्बते । । , ५२. उबेहमानो पत्ते सायं । सं० उपेक्षमाणः प्रत्येकं सातम् । सुख अपना-अपना होता है - साधक इसको निकटता से देखे । भाष्यम् ५२ – सुखं दुःखं च प्रत्येकं अस्ति, एतद् आजवनसूत्रं बहुधा गीतमस्ति प्रस्तुतागमे । 'प्रत्येक सातम्' - एतद् अहिंसायाः संयमस्य च आलम्बनं भवति । भाष्यम् ५३ - वर्ण: २ यशः । तदादिश्य किञ्चिदपि नारभेत यथा दशकालिके - नो कित्तवण्णसद्द सिलोगट्टयाए तवमहिट्ठेज्जा 3 2 इस प्रकार वह कर्म और उसके बंध हेतु को पूर्ण रूप से जान कर प्राणियों की हिंसा नहीं करता अहिंसा का मूल है संयम इसलिए वह इन्द्रियों और मन की प्रवृत्तियों का संयमन करता है । संयम का मूल है लम्बा अथवा आत्मानुशासन लज्जावान् पुरुष एकांत में भी अनावरणीय का आचरण नहीं करता। वह उच्छृंखल व्यवहार नहीं करता । - । ५३. वण्ण. एसो णारभे कंचणं सव्वलोए । सं० वर्णादेशी नारभेत कञ्चन सर्वलोके । मुनि यश का इच्छुक होकर किसी भी क्षेत्र में कुछ भी न करे । सर्वलोके वर्णः – रूपम् । तदर्थं वमनविरेचनस्नेहपानादीनां प्रयोगो न कर्त्तव्यः, हस्तपादादीनां प्रक्षालनं वा । लोकः ४ -- जगत् शरीरं वा । आचारांग भाष्यम् १. द्रष्टव्यम् १1१२१, १२२; २।२२, २७८ ५।२४ । २. आचारांग चूर्ण, पृष्ठ १७८ : वणिज्जति जेण वण्णो, जं भणितं -- तवसोय संजमो एव आयजसा । Jain Education International 'सुख और दुःख अपना-अपना होता है' – यह आलम्बनसूत्र प्रस्तुत आगम में अनेक बार बताया जा चुका है। 'शुख अपना-अपना होता है' – यह अहिंसा और संयम का आलम्बन बनता है । . वर्ण का अर्थ है - यश अनगार यश का इच्छुक होकर किसी भी क्षेत्र में कुछ भी न करे । दशवेकालिक सूत्र में कहा है-मुनि कीर्ति, वर्ण, शब्द तथा श्लोक के लिए तप न करे । ५४. एप्प विदिसपणे निविचारी अरए पयासु । , सं० एकात्ममुखः विदिशाप्रतीर्णः निर्विण्णचारी अरतः प्रजासु । मुनि अपने लक्ष्य की ओर मुख किए चले, वह विरोधी दिशाओं का पार पा जाए, विरक्त रहे, स्त्रियों में रत न बने । वर्ण का दूसरा अर्थ है रूप । मुनि अपने सौन्दर्य की अभिवृद्धि के लिए वमन, विरेचन, स्नेहपान आदि का प्रयोग न करे, हाथ-पैर आदि का प्रक्षालन न करे । लोक का अर्थ है-जगत् अथवा शरीर । ३. दसवेआलियं ९१४ सूत्र ६ । ४. आचारांग चूर्ण, पृष्ठ १७८ लोगो तिविहो - उड्डाइ, कायलोगो वा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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