________________
अ० ५. लोकसार, उ० ३. सूत्र ५१-५७
भाष्यम् ५४-साधकः पुरुषः एकात्ममुखो' भवेत् । साधक पुरुष एकात्ममुख हो। उसका चित्त अथवा उसकी तस्य चित्तं अभिमुखता वा केवलं आत्मानं प्रति स्यात् न अभिमुखता केवल आत्मा के प्रति रहे, पदार्थ के प्रति नहीं। सम्यक्त्व, तु पदार्थ प्रति । सम्यक्त्वज्ञानचारित्राणि दिशाः, ज्ञान और चारित्र-ये दिशाएं हैं। उनसे व्यतिरिक्त सभी विदिशाएं तद्व्यतिरिक्ताः विदिशाः, यथा-एकांताग्रहात्मकः हैं। जैसे-एकांत आग्रही दृष्टिकोण सम्यक्त्व की विदिशा है। दृष्टिकोणः सम्यक्त्वस्य विदिशा, हिंसासमर्थकानि हिंसा के समर्थक शास्त्र ज्ञान की विदिशाएं हैं। विषय और कषाय शास्त्राणि ज्ञानस्य विदिशाः, विषयकषायाश्चारित्रस्य चारित्र की विदिशाएं हैं । मुनि इन विदिशाओं को आत्मा के द्वारा विदिशाः। एताः विदिशाः आत्मना तीर्णाः प्रतीर्णा वा तैर जाए, उनका पार पा जाए। वह निविष्णचारी हो- पदार्थ, भवेयुः। स निविण्णचारी भवेत्-पदार्थ स्वजनं शरीरं स्वजन और शरीर के प्रति विरक्त रहे। प्रजा का अर्थ है-स्त्री। प्रति च निर्वेदं कुर्यात् । प्रजा:-स्त्रियः । तासु रतिं न वह उनमें रत न बने । कुर्यात् । ५५. से वसुमं सव्व-समन्नागय-पण्णाणेणं अप्पाणणं अकरणिज्जं पावं कम्मं ।
सं०-स वसुमान् सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेन आत्मना अकरणीयं पापं कर्म । संयमी साधक के लिए पूर्ण सत्य-प्रज्ञ अन्तःकरण से पाप-कर्म अकरणीय है।
भाष्यम् ५५-वसुमान्'-संयमी । तादृशस्य वसुमान का अर्थ है-संयमी। ऐसे संयमी साधक के लिए पूर्ण साधकस्य सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेन आत्मना पापं कर्म सत्यप्रज्ञ अन्तःकरण से पाप-कर्म अकरणीय होता है। जिस साधक में अकरणीयं भवति । यस्मिन् सर्वविषयग्राहिणी सत्य- सभी विषयों को ग्रहण करने वाली अथवा सत्य विषयग्राहिणी प्रज्ञा विषयग्राहिणी वा प्रज्ञा उदिता भवति स एव पापकर्म का उदय हो जाता है, वही पापकर्म को अकरणीय मानता है। अकरणीयं मन्यते । ५६. तं णो अन्नेसि।
सं०-तन्नो अन्वेषयेत् । साधक उसका अन्वेषण न करे।
भाष्यम् ५६-प्रज्ञावत: पापं कर्म अकरणीयं, तस्मात् प्रज्ञावान् साधक के लिए पापकर्म अकरणीय होता है, इसलिए तस्य अन्वेषणं न कुर्यात्, तस्य सम्मुखमपि न पश्येत् । वह उसका अन्वेषण न करे, उसके सामने भी न देखे । ५७. जे सम्मं ति पासहा, तं मोणं ति पासहा । जं मोणं ति पासहा, तं सम्मं ति पासहा ।
सं०-यत् सम्यगिति पश्यत, तत् मौनं इति पश्यत । यत् मौनं इति पश्यत, तत् सम्यगिति पश्यत । तुम देखो-जो सम्यक है, वह ज्ञान है । जो ज्ञान है, वह सम्यक् है ।
१. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १७८ : 'एगप्पमुहे' एगं अस्स
मुहं एगचित्तो-एगमणो सारपदाभिमुहो। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १९२ : एको मोक्षोऽशेषमल
कलंकरहितत्वात् संयमो वा रागद्वेषरहितत्वात् तत्र प्रगतं मुखं यस्य स तथा, मोक्षे तदुपाये वा दत्तक
दृष्टिर्न कञ्चन पापारम्भमारमेत इति । (ग) जिसका मुख लक्ष्य की ओर होता है, वही विदिशाओं
का पार पा सकता है। विदिशाओं का पार पाने के सकल्प-सूत्र हैं१. मैं अज्ञान को छोड़ता हूं, ज्ञान (आत्मानुभव) को
स्वीकार करता हूं।
२. मैं मिथ्यात्व को छोड़ता हूं, सम्यक्त्व को स्वीकार
करता हूं। ३. मैं अचारित्र को छोड़ता हूं, चारित्र को स्वीकार करता हूं।
आसक्ति और रति ---ये दोनों लक्ष्य से भटकाने वाले हैं। विदिशाओं का पार पाने वाला इन दोनों
के भटकाव से मुक्त होता है। २. आचारांग चूणि, पृष्ठ १७९ : वसंति तंमि गुणा इति वसु,
तं च वसुंधणं भावे संजमो जस्स अत्थि सो वसुमं । ३. चूणिकृता 'अण्णेसि' इति पवस्य 'अण्णेसा' इति व्याख्यानं कृतम्---'तपणो अणेसि सयाणं करिज्जा' (चूणि, पृष्ठ १७९)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org