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भाष्यम् ५७ --- मौनं संयमः । सम्यक् – सम्यक्त्वम् । निश्चयनयानुसारं यः संयमी स एव सम्यग्दृष्टिर्भवति तेन सम्यक्त्वसंयमयोरविनाभावोऽत्र दर्शितः । अत्र सम्यरूपदेन ज्ञानसम्यक्त्वयोर्द्वयोरपि ग्रहणं जायते उक्तं च चूर्णे - 'जं सम्मतं तत्य नियमा णाणं, जत्थ जाणं तत्य जिपमा सम्बतं अतो भयमवि सम्म
मौनं ज्ञानमित्यपि सम्मतम् ।
५८. इमं सवर्क सिटिलेहि अद्दिज्जमानहि गुणासाएहि
सं० - इदं शक्यं शिथिल जयमार्गः गुणास्वाद वकसमाचार प्रमसः अगारमावसद्भिः ।
जिनकी धृति मन्द है, जो स्नेहार्द्र हैं, विषयलोलुप हैं, मायापूर्ण आधार वाले हैं, प्रमत्त हैं और जो गृहबासी हैं, उनके लिए यह ज्ञान शक्य नहीं है।
भाष्यम् ५८ - इदं मौनं तेषां शक्यं नास्ति ये तपसि संयमे च शिथिलाः सन्ति न सन्ति च धृतिमन्तः, ये सन्ति स्नेहार्द्राः स्वजने ममत्ववन्तः - स्वजने ममत्ववन्तः उपकरणे च आसक्ताः ये गुणेषु - शब्दादिविषयेषु स्वयन्ते अथवा सातं मन्यन्ते ये सन्ति वऋसमाचाराः - अकृत्यस्थानमासेव्य नालोचनां कुर्वन्ति ये सन्ति प्रमत्ताः धर्म साधनां प्रति अनुत्साहवन्तः ये सन्ति अगारमावसन्त: येषां एवंविधा चिंता भवति न गृहस्यतुल्यः आश्रमोस्तीति ।
इदं तेषामेव शक्यं ये सन्ति धृतिमन्तः, अपरिग्रहाः, विषयविरताः ऋजवः, अप्रमत्ताः, गृहं त्यक्तुं समर्थाश्च ।
५४. मुणी मोणं समायाए, पुणे कम्म सरीरमं ।
सं० – मुनिः मौनं समादाय धुनीयात् कर्मशरीरकम् । मुनि ज्ञान को प्राप्त कर कर्म शरीर को प्रकम्पित करे ।
यह मौन की आराधना उनके लिए शक्य नहीं है जो तप और संयम में शिथिल हैं, जो धृतिमान् नहीं हैं, जो स्नेहार्द्र हैं – स्वजनों के प्रति ममत्व रखने वाले और उपकरणों में आसक्त हैं, जो गुणों शब्द आदि विषयों में लोलुप हैं अथवा जो सुख-स्वादु हैं, जो मायापूर्ण आचार वाले हैं - अकरणीय का आचरण कर आलोचना नहीं करते, जो प्रमत्त है-धर्म की साधना के प्रति अनुत्साहित है, जो गृहवासी है जो ऐसा चितन करते हैं कि गृहस्थ-तुल्य कोई साधन नहीं है। हैं— आश्रम
१. आचारांग चूर्णि, १७९ : णिच्छयणयस्स जो चरिती सो सम्मविट्टी ।
२. (क) आचारांग पूणि, पृष्ठ १७९ ।
आचारांग भाष्यम्
मौन का अर्थ है संयम और सम्यक् का अर्थ है- सम्यक्त्व । निश्चयनय के अनुसार जो संयमी होता है यही सम्पष्ट होता है। प्रस्तुत आलापक में सम्यक्त्व और संयम का अविनाभाव बताया गया है यहां 'सम्यम्' शब्द से ज्ञान और सम्यक्त्व दोनों का ग्रहण किया गया है। चूर्णि में कहा है- जहां सम्यक्त्व है वहां निश्चितरूप से ज्ञान है और जहां ज्ञान है वहां निश्चित रूप से सम्यक्त्व है । इसलिए दोनों सम्यक्त्व हैं। मौन का अर्थ ज्ञान भी सम्मत है ।
(ख) व्यवहारनय की दृष्टि से ज्ञान और आचार में दूरी मानी जाती है। निश्चयनय के अनुसार उनमें कोई दूरी नहीं होती। सम्यग् दर्शन और सम्यम् ज्ञान की परिणति सम्यक् चारित्र है । प्रस्तुत सूत्र का प्रतिपाद्य है - ज्ञान का सार आचार है। आचार-शून्य ज्ञान अन्ततः समीचीन कैसे बना रह सकता है ? सूत्रकार को सम्यग् ज्ञान और सम्यग् आचरण की एकता
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बंकसमायारेहि पमतेहि गारमावसंतेहि ।
यह मौन की साधना उनके लिए ही शक्य है जो धृतिमान् हैं, अपरिग्रही है, विषयों से विरत है, ऋऋजु हैं, अप्रमत हैं और जो गृहवास को छोडने में समर्थ हैं ।
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इष्ट है। उनके अनुसार सम्यग् ज्ञान सम्यग् आचरण होने की सूचना देता है और सम्यग् आचार सम्यग् ज्ञान होने की सूचना देता है। एक को देखकर दूसरे को 'सहज ही देखा जा सकता है ।
'सम्म' शब्द का संस्कृत रूप साम्य भी किया जा सकता है। यहां साम्य का अर्थ प्रासंगिक भी है। उसके सन्दर्भ में प्रस्तुत सूत्र का अनुवाद इस प्रकार होगा
तुम देखो, जो साम्य है, वह साधुत्व है। जो साधुत्व है, वह साम्य है ।
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