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अ० ५. लोकसार, उ० ६. सूत्र १२६-१४० १३६. परिणे सण्णे। सं०-परिज्ञः संज्ञः। वह परिश है, वह संज्ञ है-सर्वतः चैतन्यमय है ।
१३७. उवमा ण विज्जए। सं०-उपमा न विद्यते।
उसके लिए कोई उपमा नहीं है। १३८. अरूवी सत्ता।
सं०-अरूपी सत्ता। वह अमूर्त अस्तित्व है।
१३६. अपयस्स पयं णस्थि ।
सं०-अपदस्य पदं नास्ति । वह अपद है-उसका बोध कराने वाला कोई पद नहीं है।
१४०. से ण सद्दे, ण रूवे, ण गंधे, ण रसे, ण फासे, इच्चेताव । ---त्ति बेमि । सं.–स न शब्दः, न रूपं, न गन्धः, न रसः, न स्पर्शः, इत्येतावत् । इति ब्रवीमि । वह न शब्द है, न रूप है, न गंध है, न रस है और न स्पर्श है, इतना ही। —ऐसा मैं कहता हूं।
भाष्यम् १२३-१४०-प्रस्तुतागमस्य प्रारम्भः आत्म- प्रस्तुत आगम का प्रारंभ आत्म-सिद्धान्त के प्रतिपादन से ही सिद्धान्तमधिकृत्य एव जातः । तत्र औपपातिक: आत्मा हुआ है। औपपातिक आत्मा नानाविध शरीरों को धारण करती है नानाविधानि शरीराणि दधाति नानारूपासु च योनिषु और नानाविध योनियों में अनुसंचरण करती है, बार-बार जन्मती अनुसंचरति । असौ संसारी इत्युच्यते। कर्मोपाधिसापेक्ष- है, मरती है। इसे संसारी आत्मा कहा जाता है। कर्मोपाधिसापेक्ष द्रव्याथिकनयमते असौ आत्मा शरीराधिष्ठितत्वात् द्रव्याथिकनय के मत में यह आत्मा शरीर में अधिष्ठित होने के तर्कगम्यः, मतिग्राह्यः, पौद्गलिकगुणैः युक्तः, कारण तर्कगम्य, बुद्धिग्राह्य, पौद्गलिक गुणों से युक्त, पुनर्जन्मधर्मा, पूनर्जन्मधर्मा, स्त्रीपुरुषादिलिगान्वितः कथंचिन्मूर्तोऽपि स्त्री-पुरुष आदि लिंग से सहित तथा कथंचिद् मूर्त भी है। भवति ।
कर्मोपाधिनिरपेक्षद्रव्याथिकनयमते जीवपारिणा- कर्मोपाधिनिरपेक्ष द्रव्याथिकनय के मत में जीव-पारिणामिक मिकभावमाश्रितः आत्मा मुक्तः सिद्धो वा प्रोच्यते । भावयुक्त आत्मा मुक्त अथवा सिद्ध कही जाती है । शरीरमुक्त होने के शरीरमुक्तत्वात् असौ अमूर्तो भवति। ततः स शब्दैः कारण वह आत्मा अमूर्त होती है । इसलिए वह न शब्दगम्य है और तर्केश्च अगम्यो भवति, मत्या अग्राह्यो भवति । पुद्गल- न तर्कगम्य है । वह बुद्धि के द्वारा अग्राह्य है । वह आत्मा पुद्गलगुणों गुणश्च विविक्तः स्त्रीपुरुषादिलिंगभेदमतिक्रान्त: केवलं से रहित है। उसमें स्त्री-पुरुष आदि लिंगभेद नहीं होता। वह केवल परिज्ञस्वरूपे अवतिष्ठति । प्रस्तुतालापकेषु (सूत्रम् १२३- परिज्ञस्वरूप-ज्ञाता के स्वरूप में अवस्थित है। प्रस्तुत आलापकों १४०) तस्य कर्मोपाधि निरपेक्षस्य अशरीरस्य आत्मनः (१२३-१४०) में जिस आत्म-स्वरूप का निरूपण है वह आत्मा है स्वरूपं प्रतिपादितमस्ति ।
कर्मोपाधिनिरपेक्ष तथा शरीररहित। उपनिषत्सु आत्मप्रतिपादकसूत्राणां साम्यं दृश्यते। उपनिषदों में आत्मा के प्रतिपादक जो सूत्र हैं, उनका इन आत्मविद्यायाः पुरस्कारः क्षत्रिया आसन् । तेषां सूत्रों के साथ साम्य है। आत्मविद्या के पुरस्कर्ता थे क्षत्रिय । उनका १. आयारो, १४।
३.(क) छान्दोग्योपनिषद्, ५।३।१-७०। २. वही, १।८।
(ख) बृहदारण्यकोपनिषद्, ६.२८ : यथेयं विद्येतःपूर्व न
कस्मिश्चन ब्राह्मणं उवास तां त्वहं तुभ्यं वक्ष्यामि ।
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