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आचारांगभाष्यम्
कालं कुर्यात् तदा तस्य कालपर्यायः अनुज्ञात एव।
लेता हुआ यदि प्राण-विसर्जन करता है, तो उसकी वह कालमृत्यु अनुज्ञात ही है, सम्मत ही है।
८३. से तत्थ विअंतिकारए।
सं०-स तत्र व्यन्तिकारकः । उस मृत्यु से वह अन्तक्रिया करने वाला भी हो सकता है।
८४. इच्चेतं विमोहायतणं हियं, सुहं, खमं, णिस्सेयसं, आणुगामियं ।-त्ति बेमि ।
सं०-इत्येतत् विमोहायतनं हितं सुखं क्षमं निःश्रेयसं आनुगामिकम् । - इति ब्रवीमि । यह मरण प्राण-विमोह की साधना का आयतन, हितकर, सुखकर, कालोचित, कल्याणकारी और भविष्य में साथ देने वाला होता है।-ऐसा मैं कहता हूं।
भाष्यम् ८३-८४-द्रष्टव्यम् --६०,६१ ।
देखें-६०,६१ ।
छट्टो उद्देसो : छठा उद्देशक
८५.जे भिक्ख एगेण वत्थेण परिसिते पायबिइएण, तस्स णो एवं भवइ-बिइयं वत्थं जाइस्सामि ।
सं०-यो भिक्षुः एकेन वस्त्रेण पर्युषितः पात्र-द्वितीयेन, तस्य नो एवं भवति-द्वितीयं वस्त्रं याचिष्ये । जो भिक्ष एक वस्त्र और एक पात्र रखने की मर्यादा में स्थित है, उसका मन ऐसा नहीं होता कि मैं दूसरे वस्त्र की याचना करूंगा।
८६. से अहेसणिज्ज वत्थं जाएज्जा।
सं०–स यथैषणीयं वस्त्रं याचेत । वह यथा-एषणीय - अपनी-अपनी कल्प-मर्यादा के अनुसार ग्रहणीय वस्त्र की याचना करे।
५७. अहापरिग्गहियं वत्थं धारेज्जा। सं० -- यथापरिगृहीतं वस्त्रं धारयेत । वह यथा-परिगृहीत वस्त्रों को धारण करे-न छोटा-बड़ा करे और न संवारे ।
५८. णो धोएज्जा, णो रएज्जा, णो धोय-रत्तं वत्थं धारेज्जा।
सं०-नो धावेत् नो रजेत् नो धौतरक्तं वस्त्रं धारयेत् । वह उन वस्त्रों को न धोए, न रंगे और न धोए-रंगे वस्त्रों को धारण करे।
८९. अपलिउंचमाणे गामंतरेसु।
सं० --अपरिकुञ्चन् ग्रामान्तरेषु । वह प्रामांतर जाता हुआ वस्त्रों को छिपाकर नहीं चलता।
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