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________________ अ०८. विमोक्ष, उ० ५. सूत्र ७७-८२ ३८३ आणक्लेस्सामि'-.-आनेष्यामि। अत्र प्राचीनपरम्परा --- आरूढ़ होकर । आणक्खेस्सामि का अर्थ है-लाऊंगा। इस प्रसंग में ततियभंगे अहालंदिया चेव पडिरूबी, चउत्थभंगे जिणकप्पिओ।' प्राचीन परम्परा यह है-सूत्र में दिए गए चार विकल्पों में से तीसरे विकल्प में यथालंदिक मुनि का और चौथे दिकल्प में जिनकल्पिक मूनि का समावेश होता है। ७८. लावियं आगममाणे । सं०-लाघविकं आगच्छन् । वह लाघव का चिन्तन करता हुआ वस्त्र का क्रमिक विसर्जन और अभिग्रह का प्रयोग करे । ७६. तवे से अभिसमण्णागए भवति । सं०-तपस्तस्य अभिसमन्वागतं भवति । अल्प वस्त्र और अभिग्रह वाले मुनि के उपकरण-अवमौदर्य तथा कायक्लेश तप होता है। ८०. जमेयं भगवता पवेदितं, तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया। सं०-यदिदं भगवता प्रवेदितं तदेव अभिसमेत्य सर्वतः सर्वात्मतया समत्वमेव समभिजानीयात् । भगवान् ने जैसे अल्पवस्त्र और अभिग्रह का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से, सर्वात्मना (संपूर्ण रूप से) समत्व का सेवन करे। भाष्यम् ७८-८० द्रष्टव्यम्-६॥६३-६५ । देखें-६।६३-६५ । ८१. एवं से अहाकिट्टियमेव धम्म समहिजाणमाणे संते विरते सुसमाहितलेसे। सं०-एवं स यथाकीर्तितमेव धर्म समभिजानन् शान्त: विरत: सुसमाहितलेश्यः । इस प्रकार वह भिक्षु तीर्थकरों के द्वारा निरूपित धर्म को जानता हुआ शान्त, विरत और सुसमाहितलेश्या वाला बने । भाष्यम् ८१-एवं भगवता तीर्थकरेण धर्मः-वस्त्रादि इस प्रकार तीर्थङ्कर भगवान ने धर्म--- वस्त्र आदि विषयक समाचारः अभिग्रहविशेषो वा यथाकीर्तितः। तस्य सामाचारी अथवा अभिग्रह विशेष का निरूपण किया है। उसके सम्यग समभिज्ञानेन शान्तिः विरतिः सुसमाहिता च लेश्या ज्ञान के तीन परिणाम होते हैं - शांति, विरति और सुसमाहित लेश्या । भवति। शान्तिमनुभवन्नेव स शान्तः, विषयेभ्यो शांति का अनुभव करने के कारण वह शांत , शब्द-रूप आदि विषयों से विरतिमनुभवन्नेव स विरतः, समाधियुक्तां लेश्यामनु- विरति का अनुभव करने के कारण वह विरत और समाधियुक्त लेश्या भवन्नेव स सुसमाहितलेश्यो' प्रोच्यते । का अनुभव करने के कारण वह सुसमाहित-लेश्या वाला कहलाता है। ८२. तत्थावि तस्स कालपरियाए। सं० -- तत्रापि तस्य कालपर्यायः । ऐसा करने पर भी उस ग्लान भिक्षु की वह काल-मृत्यु होती है। भाष्यम् ८२-तत्र ग्लानावस्थायां स ग्लानः अपरि- उस ग्लान अवस्था में वह ग्लान मुनि शरीर की सार-संभाल कर्मशरोरः अन्येन असदृशकल्पिकेन गृहीतं गृह्णन् यदि न करता हुआ, दूसरे असमान कल्पवाले मुनि के द्वारा गृहीत वस्तु को १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २७८ : अनिक्खिस्सामित्ति अणिस्सिसामि करेस्सामि ....."अणिक्खिस्सामि गिलायमाणस्स, जं भणित-आतेतुं दिस्सामि । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २५६ : 'अन्वीक्षिष्ये'। एतत् क्रियापदं देशीपदसंबद्धमेव संभाव्यते । २. आचारांग चूणि, पृष्ठ २७८ । ... ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २७९ : पसस्थासु लेसासु अप्पा आहितो जस्स जेण वा अप्पत्ते आहियाओ लेस्साओ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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