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________________ ३६० आचारोगभाव्यम् वह अनशन सत्य है । उसे सत्यवादी प्रतिज्ञा का निर्वाह करने वाला, वीतराग, संसार-समुद्र का पार पाने वाला, 'अनशन का निर्वाह होगा या नहीं इस संगम से मुक्त, सर्वथा कृतार्थ, परिस्थिति से अप्रभावित, शरीर को क्षणमंगुर जानकर, नाना प्रकार के परीषहों और उपसर्गों को मथकर 'जीव पृथक् है' 'शरीर पृथक् है' इस मेद विज्ञान की भावना का आसेवन कर भैरव अनशन का अनुपालन करता हुआ क्षुब्ध न हो । । भाष्यम् १०७ तद् इङ्गिनीमरणमनशनं सत्यं हितकरत्वात् । स भिक्षुः तद् भैरवं अनुचीर्णो भवति । स भवति एताभिरवस्थाभिविशिष्टः । प्रतिज्ञामन्तं नेतुं क्षमत्वात् सत्यवादी एकत्वानुभूतियुक्तत्वात् ओज 'तरन् तीर्ण' इति नयेन प्रव्रज्यायां आसन्नोत्तीर्णत्वात् तीर्णः । कथंकथं संशयकरणं किमहं एतद् अनशनं पारं नेष्यामि न वा इति संशयमुक्तत्वात् छिन्नकथं कथः । कृतार्थत्वात् आतीतार्थ: ।' बाह्य: प्रभावैरप्रभावितत्वात् अनादत्तः । एतादृशः भिक्षुः कार्यं भिदुरं विदित्वा विरूपरूपान् परीषहोपसर्गान् संविधूय अस्मिन् शरीरे जोवोस्ति तथापि स ततो विष्वगृपृथग् भिन्नो वा वर्तते इति भेदविज्ञानस्य भावनां भवत्वा- आसेव्य स भौरव मनशनमनुचरति । - १०८. तत्थात्रि तस्स कालपरियाए । सं० -- तत्रापि तस्य कालपर्याय: । ऐसा करने पर भी उसकी वह काल-मृत्यु होती है। १०. से तत्थ विअंतिकारए । सं० स तत्र व्यन्तिकारकः । उस मृत्यु से वह अन्तः क्रिया - पूर्ण कर्म-क्षय करने वाला भी हो सकता है। १. चूणौं (पृष्ठ २८३), वृत्तौ (पत्र २५९) च 'आतीतट्ठे ' पदस्य अनेके विकल्पाः कृताः सन्ति । वह इंगिनीमरण अनशन हितकारी होने के कारण सत्ययथार्थ है । वह भिक्षु इस भैरव अनशन का पालन करता है। वह इन अवस्थाओं से विशिष्ट होता है-प्रतिज्ञा का निर्वाह करने में समर्थ होने के कारण वह सत्यवादी, एकस्व की अनुभूति से युक्त होने के कारण भोज वीतराग, तैरता हुआ तीर्ण होता है, इस नय से प्रवज्या में प्रायः उत्तीर्ण हो जाने के कारण तीर्ण कहलाता है। 'कलंक' का अर्थ है संशय करना मैं इस अनशन का निर्वाह कर सकूंगा या नहीं इस संशय से मुक्त होने के कारण वह 'छिन्नकथं कथ', सर्वथा कृतार्थ होने के कारण 'आतीतार्थ' और बाह्य प्रभावों से अप्रभावित होने के कारण 'अनावत' होता है। ऐसा भिक्षु शरीर को क्षणभंगुर जानकर, नाना प्रकार के परीषहों और उपसर्गों को मथकर, इस शरीर में जीव है, फिर भी वह उससे पृथक है अथवा मित्र है, इस भेद-विज्ञान की भावना का सेवन कर, भैरव अनशन का अनुपालन करता है । । ११०. इच्चेतं विमोहायतणं हियं, सुहं, खमं, णिस्सेयसं, आणुगामियं । - ति बेमि । सं० इत्येतत् विमायतनं हितं सुखं क्षमं निःश्रेयसं अनुगामिकम् । इति प्रीमि - । यह मरण प्राण-विमोह की साधना का आयतन हितकर, सुखकर कालोचित, कल्याणकारी और भविष्य में साथ देने वाला होता है। ऐसा मैं कहता हूँ। भाष्यम् १०८ - ११० - स्पष्टमेव । २. आचारांग चूर्णि, पृष्ठ २८३-८४ : विस्सं अणे गप्पगारं विरसं भविता तंगहा अन् सरीरं अहं भय सेवाए एवं भविता ययुक्तं भवति सेवित्ता, अहवा विरसं अग विहं भवो तं भत्ता, वीसं वा भइत्ता, जीवो सरीराओ Jain Education International -- स्पष्ट है । सरीरं वा जीवाओ, अहवा जीवाओ कम्मं कम्मं वा जीवाओ । ३. आचारांग चूर्ण, पृष्ठ २८४ : भयं करोतीति मेरवं मेरवेहिं परीसहोक्सोहि अनुचिन्नमाणो अणुचिमो समसगसीहबन्धातिएहि य रक्खसविसायादीहि घ, अहवा दव्वावहिं अणुचिष्णो तहावि अक्खुग्भमाणो । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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