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________________ अ०८. विमोक्ष, उ०६-७. सूत्र १०८-११५ सतमो उद्देसो : सातवां उद्देशक १११.जे भिक्ख अचेले परिवसिते, तस्स णं एवं भवति–चाएमि अहं तणफासं अहियासित्तए, सीयफासं अहियासित्तए, तेउफासं अहियासित्तए, दस-मसगफासं अहियासित्तए, एगतरे अण्णतरे विरूवरूवे फासे अहियासित्तए, हिरिपडिच्छादणं चहं णो संचाएमि अहियासित्तए, एवं से कप्पति कडि-बंधणं धारित्तए। सं०–यो भिक्षुः अचेलः पर्युषितः, तस्य एवं भवति- शक्नोमि अहं तृणस्पर्श अधिसोढं, शीतस्पर्श अधिसोढुं, तेजःस्पर्श अधिसोढुं, दंशमशकस्पर्श अधिसोढुं, एकतरान् अन्यतरान् विरूपरूपान् स्पर्शान् अधिसोढुं, ह्रीप्रतिच्छादनं चाहं नो संशक्नोमि अधिसोढुं, एवं तस्य कल्पते कटिबन्धनं धारयितुम् । जो भिक्षु अचेल रहने की मर्यादा में स्थित है, उसका ऐसा अभिप्राय हो–'मैं घास की चुभन को सहन कर सकता हूं, सर्दी को सहन कर सकता हूं, गर्मी को सहन कर सकता हूं, डांस और मच्छर के काटने को सहन कर सकता हूं, एकजातीय भिन्नजातीय-नाना प्रकार के स्पों को सहन कर सकता हूं, किन्तु मैं गुप्त अंगों के प्रतिच्छादन (वस्त्र) को छोड़ने में समर्थ नहीं हूं।' इस कारण से वह कटिबन्ध को धारण कर सकता है। भाष्यम् १११-स्पष्टमेव । स्पष्ट है। ११२. अदुवा तत्थ परक्कमंतं भुज्जो अचेलं तणफासा फुसंति, सीयफासा फुसंति, तेउफासा फुसंति, दंस-मसगफासा फुसंति, एगयरे अण्णयरे विरूवरूवे फासे अहियासेति अचेले। सं०-अथवा तत्र पराक्रममाणं भूयः अचेलं तृणस्पर्शाः स्पृशन्ति, शीतस्पर्शाः स्पृशन्ति, तेजःस्पर्शाः स्पृशन्ति, दंशमशकस्पर्शा: स्पृशन्ति, एकतरान् अन्यतरान् विरूपरूपान् स्पर्शान् अधिसहते अचेलः । अथवा जो भिक्ष लज्जा को जीतने में समर्थ हो, वह सर्वथा अचेल रहे-कटिबन्ध धारण न करे। उसे घास की चुभन होती है, सर्दी लगती है, गर्मी लगती है, डांस और मच्छर काटते हैं, फिर भी वह एकजातीय, भिन्नजातीय-नाना प्रकार के स्पर्शों को सहन करे। भाष्यम् ११२-स्पष्टमेव । स्पष्ट है। ११३. लाघवियं आगममाणे। सं०-लाघविकं आगच्छन् ।। वह लाघव का चिन्तन करता हुआ अचेल रहे। ११४. तवे से अमिसमन्नागए भवति । सं०-तपस्तस्य अभिसमन्वागतं भवति । अचेल मुनि के उपकरण-अवमौदर्य तथा कायक्लेश तप होता है। ११५. जमेयं भगवता पवेदितं, तमेव अभिसमेच्चा सत्वतो सध्वत्ताए समत्तमेव सममिजाणिया। सं०-यदिदं भगवता प्रवेदितं, तदेव अभिसमेत्य सर्वतः सर्वात्मतया समत्वमेव समभिजानीयात् । भगवान् ने जैसे अचेलत्व का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से, सर्वात्मना (सम्पूर्ण रूप से) समत्व का सेवन करे- किसी की अवज्ञा न करे । भाष्यम् ११३-११५-द्रष्टव्यम्-६।६३-६५ ।' देखें-६६३-६५ । , Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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