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________________ आचारांग भाष्यम् ४० उन्मादः परिदृश्यते । कानिचिद् भवनान्यपि यक्षावेश धारण करने वाले व्यक्ति में वैसा उन्माद पैदा होता है। यक्षावेशग्रस्त प्रस्तानि दृश्यन्ते ।" कुछ भवन भी देखने को मिलते हैं। (१०) संज्ञा - गौतम :- भगवन् ! कति संज्ञा वर्तन्ते ? भगवान् गौतम ! दश संज्ञा वर्तन्ते आहार-भयमैथुन परिग्रह क्रोधमान माया-लोभ लोक ओघ संज्ञाः । - - गीतम:- पृथ्वी कायिकजीवानां कति संज्ञा भवन्ति ? भगवान् गौतम ! तेषां दशापि संज्ञा भवन्ति ।' 7 । तेषां तथाविधक्षयोपशमभावतः कश्चिदव्यक्तोऽक्षरलामो भवति यद्वशादक्षरानुषक्तं श्रुतज्ञानमुपजायते । इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम् । तथाहि तेषामप्याहाराद्यभिलाष उपजायते । अभिलाषश्च प्रार्थना, सा च यदीदमहं प्राप्नोमि ततो भव्यं भवतीत्याद्यक्षरानुविद्धैव ततस्ते षामपि काचिदव्यक्ताक्षरलब्धिरवश्यं प्रतिपत्तव्या । भगवान् गौतम ! उनमें दसों संज्ञाएं होती है। (११) पृथ्वी कायिकजीवेषु मतिः श्रुतमिति (११) ज्ञान पृथ्वीकायिक जीवों में मति और श्रुत-यह द्विविधोऽपि अव्यक्तो बोधो भवति । तेषु मनुष्यादीनां दोनों प्रकार का अव्यक्त बोध होता है उनमें मनुष्य आदि की भाषा भाषामनोज नितप्रकम्पनानां ग्रहणशक्तिरपि विद्यते और मनोनित प्रकम्पनों को पकड़ने की शक्ति भी होती है। यद्यपि यद्यपि तेषामेकेन्द्रियादीनां परोपदेशश्रवणासम्भवस्तथापि उन एकेन्द्रिय आदि जीवों के लिए दूसरों का वचन सुनना असंभव है, । फिर भी उनके अक्षर-लाभ के अनुरूप क्षयोपशम के कारण कोई अव्यक्त अक्षरलाभ होता है । इसके फलस्वरूप अक्षर सम्बन्धी श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है। इस प्रकार उनमें ज्ञान को स्वीकार किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त उनमें आहार आदि की अभिलाषा पैदा होती है। अभिलाषा का अर्थ है - मांग। जैसे – यदि यह मुझे मिल जाए तो अच्छा हो। यह मांग अक्षरात्मक ही होती है। इसलिए उनमें भी कुछ अव्यक्त अक्षरलब्धि अवश्य मानी जा सकती है। 1 पृथ्वीकायिकजीवेषु केवलमव्यक्तमेव अतीवाल्पतरं मनो द्रष्टव्यम्, यद्वशाद् आहारादिसंज्ञा अव्यक्तरूपा प्रादुर्भवन्ति ।" मत्तमूच्छितविषभावितपुरुषज्ञानवद् एकेन्द्रियाणां सर्वजघन्यविज्ञानं भवति । (१२) आहारा गीतम: भगवन् ! पृथ्वीकायिक- जीवाः किवता कालेन आहाराविनो भवन्ति ? भगवान् गौतम ! ते अनुसमयं अविरहितं आहाराथिनो भवन्ति । आहारपुद्गलानां पुराणान् वर्णादिगुणान् विपरिणमय्य अन्यानपूर्वान् वर्णादिगुणानुत्पाद्य तान् सर्वात्मना आहरन्ति । (१३) पर्यवाः - गौतमः -- भगवन् ! पृथ्वीकायिकजीवेषु कति पर्यवा भवन्ति ? Jain Education International १. संदेश (गुजराती पत्र) २४ जुलाई १९८३ पृ० ८ २. नवभारत टाइम्स वार्षिक अंक - पराविद्या के रहस्य १९७६, पृ० ४३ । ३. अंगाथि २, गवई ७१६१ कति मं भंते । सयाओ पताओ ? गोमा ! दस सण्णाओ पण्णत्ताओ, तं जहा- आहारसण्णा, पण मेहुण्या परिहसण्या, कोहसण्या, माणसण्णा, मायासण्णा, लोभसण्णा, लोगसण्णा, ओहसण्णा । (१०) संज्ञा - गौतम ने पूछा-भगवन् ! संज्ञाएं कितनी है ? भगवान् गौतम ! संज्ञाएं दस हैं-आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिवहसंज्ञा कोयसंज्ञा मानसंज्ञा, शमासंज्ञा, सोभसंज्ञा, लोकसंज्ञा और ओघसंज्ञा । हैं ? गौतम भगवन् । पृथ्वीकायिक जीवों में कितनी बंज्ञाएं होतो 1 पृथ्वी कायिक जीवों में केवल अव्यक्त और अतीव अल्पतर मन होता है, जिससे आहार आदि संज्ञाएं अव्यक्त रूप में प्रादुर्भूत होती हैं। मत्त, मूच्छित तथा विष से प्रभावित पुरुष के ज्ञान की तरह एकेन्द्रिय जीवों में जघन्यतम ज्ञान होता है । (१२) आहार गौतम भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों में कितने समय के अन्तराल से आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ? भगवान् गौतम ! उनमें प्रतिक्षण, निरन्तर आहार की अभिलाषा होती है । वे आहार के पुद्गलों के पहले वाले वर्ण आदि गुणों का विपरिणमन कर अन्य नए वर्ग आदि गुणों को उत्पन्न कर उन्हें सर्वात्मना आत्मसात् कर लेते हैं। --- ! (१२) पर्यव गौतम भगवन् । पृथ्वीकाविक जीवों में कितने पर्यन होते हैं ? ४. अंगसुत्ताणि २, भगवई ८।१०७ : पुढविक्काइया णं भंते ! कि नाणी ? अण्णाणी ? गोयमा ! नो नाणी, अण्णाणी । जे अण्णाणी ते नियमा दुअण्णाणी - मइअण्णाणी, सुयअण्णाणी य । ५. नन्दी, मलयगिरि वृत्ति, पत्र १८८ । ६. नन्दी, मलयगिरि वृत्ति, पत्र १८० । ७. नन्दी चूर्णि पृष्ठ ४६ ॥ ८. पन्नवण्णा २८।२८-३२ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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