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________________ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० २. सूत्र २८ ४१ भगवान्-गौतम ! तेष्वनन्ता पर्यवा भवन्ति । ते भगवान्-गौतम ! उनमें अनन्त पर्यव होते हैं। वे परस्पर परस्परमपि वर्णादिविषये ज्ञानदर्शनविषये च षट्स्थान- वर्ण आदि के विषय में और ज्ञान-दर्शन के विषय में षट्स्थानपतित पतिता' भवन्ति । होते हैं। (१४) इन्द्रियज्ञानेन अज्ञेयत्वम् यथा वृक्षे सूक्ष्मः स्नेह- (१५) इन्द्रियज्ञान से अज्ञेयता-वृक्ष में सूक्ष्म स्नेहगुण होता गुणो विद्यते तेनैव तस्याहारेण शरीरोपचयो जायते, है। उसी के आहार से वृक्ष के शरीर का उपचय होता है, किन्तु अव्यक्त किन्तु अव्यक्तत्वेन तन्नैव लक्ष्यते। तथैव पृथिव्यामप्यस्ति होने के कारण वह परिलक्षित नहीं होता। वैसे ही पृथ्वी में भी सूक्ष्मस्नेहः, किन्तु सूक्ष्मत्वेन स नैव दृश्यते। सूक्ष्मस्नेह होता है, किन्तु सूक्ष्मता के कारण वह दिखाई नहीं देता। (१५) कषायः ----पृथ्वीकायिकजीवेषु क्रोधादयोऽपि (१५) कषाय--पृथ्वीकायिक जीवों में क्रोध आदि भाव भी भवन्ति, किन्तु ते भावाः सूक्ष्माः सन्ति, तेनेन्द्रियज्ञानि- होते हैं किन्तु वे सूक्ष्म होने के कारण इंद्रिय-ज्ञानियों से उपलक्षित नहीं नोऽनुपलक्ष्याः । यथा मनुष्याः क्रोधोदये सति आक्रो- होते । जैसे-क्रोध का उदय होने पर मनुष्य आक्रोश करते हैं, त्रिवली शन्ति, त्रिवली भ्रकुटि वा कुर्वन्ति, तथा क्रोधोदये सति करते हैं या भृकुटि तानते हैं, उस प्रकार पृथ्वीकायिक जीव क्रोध का पृथ्वीकायिकजीवास्तं प्रदर्शयितुं न प्रत्यलाः। उदय होने पर उसे प्रदर्शित करने में समर्थ नहीं होते। (१६) लेश्या-पृथ्वीकायिकजीवेषु चतस्रो लेश्या (१७) लेश्या-पृथ्वीकायिक जीवों में चार लेश्याएं होती हैंभवन्ति--कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या और तेजोलेश्या। इससे ज्ञात होता तेजोलेश्या । अनेन ज्ञायते तेषु मनसो विकासो नास्ति, है कि उनमें मन का विकास नहीं है, फिर भी उनमें भावों का तथापि भावानामस्तित्वं विद्यते। सत्सु भावेषु आभा- अस्तित्व है । भावों का अस्तित्व होने के कारण उनमें आभामण्डल मण्डलस्यापि विद्यमानता। भी होता है। प्रश्नः समुत्थितः- 'भगवन् ! पृथ्वीकायिकजीवा न गौतम ने प्रश्न उपस्थित किया-भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव शृण्वन्ति, न पश्यन्ति, न जिघ्रन्ति, न गच्छन्ति । तेषां न सुनते हैं, न देखते हैं, न सूंघते हैं और न गति करते हैं। हम कैसे वेदना भवतीति वयं कथं प्रतीमः ?' विश्वास करें कि उनको वेदना होती है ? भगवता अस्मिन् विषये प्रस्तुतसूत्रे त्रयो दृष्टान्ताः इस विषय में भगवान् ने प्रस्तुत सूत्र में तीन दृष्टांतों का प्रज्ञप्ताः । निरूपण किया है। प्रथमो दृष्टान्तः पहला दृष्टांत१. यथा कश्चित् पुरुषः अन्धं-इन्द्रियविकलं पुरुषं १. जैसे कोई पुरुष अन्ध अर्थात् इन्द्रिय-विकल पुरुष का भेदनआभिन्द्यादाच्छिन्द्याच्च । किं स वेदनां नानुभवति ? स छेदन करता है, क्या उसे वेदना का अनुभव नहीं होता? वह इन्द्रियवैकल्याद् वेदनां व्यजितुमशक्नुवन्नपि तामनु- इन्द्रिय-विकलता के कारण वेदना को व्यक्त करने में असमर्थ होते हुए भवति । तथैव वेदनाभिव्यञ्जनायामक्षमा अपि पृथ्वी- भी उसका अनुभव करता ही है । उसी प्रकार वेदना को प्रकट करने में कायिकजीवास्तामनुभवन्त्येव । अस्मिन् सूत्रे चूर्णिकारेण अक्षम होते हुए भी पृथ्वीकायिक जीव उसका अनुभव अवश्य करते हैं । 'अग' पदमपि व्याख्यातम्–स पुरुषो न केवलं इन्द्रिय- इस सूत्र में चूर्णिकार ने 'अग' पद को भी व्याख्यात किया है वह विकलः, अपि तु गतिविकलोऽपि, यथा मृगापुत्रः पाषाण- पुरुष न केवल इन्द्रिय-विकल होता है, अपितु गति-विकल भी होता है। खण्डकल्पोऽपि वेदनामन्वभवत्' तथा पृथ्वीकायिकजीवा जैसे मृगापुत्र पत्थर के टुकड़े के समान था, फिर भी वह वेदना का अपि । ___ अनुभव करता था, वैसे ही पृथ्वीकायिक जीव वेदना का अनुभव करते हैं। १. षट्स्थानपतिता २. पन्नवणा ५१५२-२३ । हीन अधिक ३. निशीथभाष्य, गाथा ४२६४ । १. अनन्तभाग हीन १. अनन्तभाग अधिक ४. निशीथभाष्य, गाथा ४२६५ : २. असंख्यातभाग हीन २. असंख्यातभाग अधिक कोहाई परिणामा तहा, एगिदियाण जंतूणं । ३. संख्यातभाग हीन ३. संख्यातभाग अधिक पावल्लं तेसु कज्जेसु, कारेउं जे अपच्चला ॥ ४. संख्यातगुण होन ४. संख्यातगुण अधिक ५. अंगसुत्ताणि २, भगवई १९।६। ५. असंख्यातगुण हीन ५. असंख्यातगुण अधिक ६. अंगसुत्ताणि ३, विवागसुयं-११।२६-४१ । ६. अनन्तगुण हीन ६. अनन्तगुण अधिक ७. आचारांग चूणि, पृष्ठ २३ । (भगवई, २५॥३५०) न्द्रियविक स द्रय-विक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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