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________________ अ० ६.धुत, उ० ५. सूत्र १०४-१०५ ३४३ हिंसाहेतुभूतानां दानादिप्रवृत्तीनां प्रशंसां निषेधं वा न प्रसंग में हिंसा के हेतुभूत दान आदि प्रवृत्तियों की न प्रशंसा करे और कुर्यात् । अत्र बचनद्वयेऽपि अन्येषां प्राणादीनां आशातना न निषेध करे। ऐसे प्रसंग में प्रशंसा या निषेध--इन दोनों वचनों से भवति । भी दूसरे प्राण, भूत आदि की आशातना होती है । १०५. से अणासादए अणासादमाणे वुज्झमाणाणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं, जहा से दीवे असंवीणे, एवं से भवइ ___ सरणं महामुणी। सं० - स अनाशातकः अनाशातयन् उह्यमानानां प्राणानां भूतानां जीवानां सत्त्वानां, यथा स द्वीपः असन्दीन:, एवं स भवति शरणं महामुनिः । दूसरों को बाधा न पहुंचाने वाला वह भिक्ष जीवों की हिंसा का निमित्त बने, ऐसा उपदेश न दे। वह महामुनि संसार-प्रवाह में डूबते हुए प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों के लिए वैसे ही शरण होता है जैसे असन्दीन द्वीप । भाष्यम् १०५–स अनाशातकः धर्मकथी' भिक्षुः तथा आशातना-दूसरों को बाधा न पहुंचाने वाला वह धर्मकथी धर्म न कथयति यथा प्राणादीनां आशातना भवति, तेन भिक्षु धर्म का प्रतिपादन उस प्रकार से नहीं करता, जिससे किसी स अनाशातयन् इति उच्यते। चूर्णी अनासादयन् इति प्राण, भूत आदि की आशातना होती है। इसीलिए उसे 'आशातना नहीं वैकल्पिकः अर्थः कृतोऽस्ति- 'अहवा धम्मं कहेंतो ण किंचि करता हुआ' कहा जाता है। चूर्णि में 'अनासादयन्'- यह वैकल्पिक आसादए अन्नं पाणं वा, जं भणितं-तट्ठा ण कहेति ।' अर्थ किया है-अथवा मुनि धर्म कहता हुआ अन्न-पान आदि कुछ भी प्राप्त न करे । कहा है-मुनि अन्न, पान के लिए धर्मकथा नहीं करता। तादशो महामुनिः संसारसमुद्रे उह्यमानानां प्राणा- वैसा महामुनि संसार-समुद्र में बहे जाते हुए प्राणियों का वैसे दीनां तथा शरणं भवति यथा समुदे उह्यमानानां ही शरणभूत होता है जैसे समुद्र में बहे जाते हुए मनुष्यों के लिए मनष्याणां असन्दीन: द्वीपः । असन्दीनः द्वोप:' इति पूर्व असन्दीन द्वीप । असन्दीन द्वीप की व्याख्या पहले की जा चुकी है। व्याख्यातम् । १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २३९-२४० : सो एवं आलापकों (१००-१०५) में पांच अर्हताएं प्रतिपादित अणासातए- अणासायमाणे किंचि जति लोइया हैं--१. पक्षपात-शून्यता। २. सम्यग्दर्शन । ३. सर्वजीवकुप्पावणिया वा दाणधम्म कूवतलागादीणि वा मैत्री। ४. आगमज्ञत।। ५. अनाशातना। पसंसंति तो पाणभूतजीवसत्ता आसादिता भवंति, नागार्जुनीय वाचना के अनुसार जो मुनि बहुश्रुत, अह भणति-दाणे दिज्जते कूवतलाएहि वा खणंतेहि बहु आगमों का अध्येता, दृष्टांत और हेतु के प्रयोगों में छक्काया वहिज्जति तेण अप्पणिग्गहो सेयो, अतो कुशल, धर्मकथा की योग्यता से सम्पन्न, क्षेत्र, काल और अंतराअदोसासायणा तज्जीवणाइ य पाणिभूत पुरुष को समझने वाला होता है, वही धर्म की व्याख्या जीवसत्ताणि आसादियाणि भवंति, भणियं च – 'जे करने के लिए अर्ह होता है। इस प्रसंग में 'केऽयं पुरिसे के य दाणं पसंसंति, वहमिच्छंति पाणिणं' तेण जह च गये' (२।१७७) यह सूत्र द्रष्टव्य है। अन्न, पान आदि उभयमवि ण विरुज्झति तहा कहियत्वं ।। के लिए धर्मकथा करना निषिद्ध है। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २३३ : यदि लौकिककुप्रावच- ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २४० । निकपार्श्वस्थादिदानानि प्रशंसति अवटतटागादीनि ४. आचारांग चूणि, पृष्ठ २४० : तथा मुणित्ति तित्थयरगणवा ततः पृथिवीकायादयो व्यापादिता भवेयुः, अथ धरो वा अण्णतरो वा साहू कम्मबललद्धिसंपन्नो।। दूषयति ततोऽपरेषां अन्तरायापादनेन तत्कृतो बन्ध- ५. आचारांग चूणि, पृष्ठ २४० : बुज्झमाणाणं पाणाणं वहिज्जविपाकानुभवः स्यात्, उक्तं च माणाणं वा संसारसमुदतेण पाणाणं सरणं गई पइट्ठा भवति 'जे उ दाणं पसंसति, वहमिच्छंति पाणिणं । जहा से दीवे असंदीणे, जहा सो दव्वदीवो आसासपगासदीबो जे उणं पडिसेहिति, वित्तिच्छेअं करिति ते ॥' ताणं सरणं गई पइट्ठा भवति एवं सोऽवि अप्पणो परस्स तस्मात्तद्दानावटतडागादिविधिप्रतिषेधव्युदासेन तदुभयस्स आसासदीवो भवति पगासदीवो य, जहुद्दिद्रेण यथावस्थितं दानं शुद्ध प्ररूपयेत् सावधानुष्ठानं चेति । कहाविहाणेणं कहेंतो केति पब्वाति केति सावते करेति, २. धर्म के व्याख्याकार की कुछ अहंताएं हैं। वे अहिंसा तहेति अहाभद्दए करेति, आगाढमिच्छाविट्ठीवि मउईभवति । और सत्य की कसौटी के आधार पर निर्धारित हैं। प्रस्तुत ६. द्रष्टव्यं-अस्यैव अध्ययनस्य ७२ सूत्रम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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