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आचारांगभाव्यम् १०४. अगुवोइ भिक्खू धम्ममाइक्खमाणे-णो अत्ताणं आसाएज्जा, णो परं आसाएज्जा, णो अण्णाई पाणाई भूयाई
जीवाई सत्ताई आसाएज्जा । सं.-अनुवीचि भिक्षुः धर्ममाचक्षाणः नो आत्मानं आशातयेत्, नो परं आशातयेत् , नो अन्यान् प्राणान् भूतान् जीवान् सत्त्वान् आशातयेत् । विवेकपूर्वक धर्म की व्याख्या करता हुआ मिनु न अपने-आपको बाधा पहुंचाए, न दूसरे को बाधा पहुंचाए और न अन्य प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों को बाधा पहुंचाए ।
भाष्यम् १०४-अनुवीचि धर्म आचक्षाणः भिक्षुः विवेकपूर्वक धर्म की व्याख्या करता हुआ भिक्षु अपनी, दूसरों आत्मनः परस्य सर्वेषां च प्राणादीनां आशातनया मुक्तो की तथा सभी प्राणियों की आशातना से मुक्त हो जाता है। आशातना भवति। आशातना-बाधा परिहानिर्वा। द्रव्यतः का अर्थ है-बाधा अथवा परिहानि । वह दो प्रकार की है-द्रव्य शरीरोपकरणादीनां अन्नपानादीनां च आशातना भवति, आशातना और भाव आशातना। द्रव्य आशातना शरीर, उपकरण भावतश्च ज्ञानदर्शनचारित्रतपोविनयादीनामाशातना आदि की तथा अन्न-पान आदि की होती है। भाव आशातना ज्ञान, भवति।
दर्शन, चरित्र, तप, विनय आदि की होती है। भोजनवेलामतिक्रम्य धर्मकथाकरणेन आहाराद्या- भोजन-वेला का अतिक्रमण कर धर्मकथा करने से आहार शातना-आहारस्य अनुपलब्धिः अपर्याप्तोपलब्धिर्वा आदि की आशातना होती है-आहार की अनुपलब्धि अथवा अपर्याप्त भवति । पुरुषविवेकमकृत्वा धर्मकथाकरणेन क्रुद्धः पुरुषः उपलब्धि होती है। पुरुष का विवेक किए बिना धर्मकथा करने से शरीरस्य उपकरणादीनां व्याघातं आहारस्य च प्रतिषेधं सुनने वाला व्यक्ति क्रुद्ध हो सकता है। वह पुरुष शरीर और कुर्यात् ।
उपकरणों आदि का व्याघात और आहार का प्रतिषेध कर सकता
तथा धर्मो न कथयितव्यः येन आत्मनः परस्य धर्म का प्रतिपादन वैसे नहीं करना चाहिए जिससे स्वयं के भिक्षोर्वा सूत्रार्थतदुभयानां हानिर्भवति । न च तादृशीं तथा दूसरे भिक्षु के सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ की हानि होती हो। अथवा स्त्रीपुरुषयोर्वा धर्मकथां कथयेत् यतश्चारित्रहानिः स्त्री-पुरुष की वैसी धर्मकथा नहीं कहनी चाहिए जिससे सुनने वाले के स्यात् । उक्ता आत्मनः आशातना।
चारित्र की हानि हो । यह स्वयं की आशातना कही गई है। इदानीं 'णो परं आसाएज्जा' इति प्रसज्यते। धर्म- अब 'दूसरे की आशातना न करे'-इसका प्रसंग है । धर्मकथी कथी भिक्षुः अन्यं धर्मकथिनं भिक्षु न निन्देत्, यथा-स भिक्षु दूसरे धर्मकथी भिक्षु की निंदा न करे, जैसे-वह बेचारा धर्म वराकःधर्ममेव न जानाति किधर्मकथां करिष्यति ?यथाहं को ही नहीं जानता, फिर क्या धर्मकथा करेगा ? जैसा मैं स्वमत और स्वसमयपरसमय विज्ञान तथा सः। न च वादमारोप्य परमत का ज्ञाता हूं, वैसा वह नहीं है। वाद आरोपित कर दूसरे पर परः आक्षेप्तव्यः, न च धर्मकथायां जातिकुलादीनां आक्षेप न करे। धर्मकथा करते समय जाति, कुल आदि का सद्भाव सद्भावं कथयित्वा परः अवज्ञातव्यः ।' उक्ता बतला कर दूसरे की अवज्ञा न करे। यह पर की आशातना कही गई पराशातना।
इदानीं प्राणादीनामाशातना उच्यते-वर्षासु स्थितः अब प्राण, भूत आदि की आशातना बतलाई जा रही है स्वयं स्थितस्य वा जनस्य धर्मकथां न कुर्यात्, यतः अप्कायि- वर्षा में बैठकर अथवा वर्षा में बैठे हुए लोगों में धर्मकथा न करे, कानां जीवानां आशातना भवति । धर्मकथायां क्योंकि इससे अप्कायिक जीवों की आशातना होती है। धर्मकथा के
१. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २३९ : जो परं आसाएज्जा,
धम्मं कहेंतो अणुधम्मकाही निदति, सो बरातो धम्म चेव न जाण ति तो कि कहेहिति ? णवि सो जहा अहं ससमयपरसमयवियाणओ, ण य वावं
कहेति। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २३३ : तथा नो परं शुश्रूषं
आशातयेद्-हीलयेद्, यतः परो हीलनया कुपितः
सन्नाहारोपकरणशरीरान्यतरपीडाय प्रवर्ततेति,
अतस्तदाशातना वजयन् धर्म बूयादिति । २. आचारांग चूणि, पृष्ठ २३९ : पुढविमाविसु वा कायेसु ठितो ठियस्स वा कहेति, धुमिताए भिण्णवासे वा पडते पाणाइं भूयाइं सत्ताई आसादेति, अत एवं भणत्ति-णो पाणाईणो भूयाई णो जीवाई णो सत्ताई आसाविज्ज ।
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