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आचारांगभाष्यम् भवन्ति ।'
पूर्वजन्म की स्मृति होती है। परव्याकरणम्
परव्याकरण एष द्वितीयो हेतुः। परेण केनचिदाप्तेन सह यह दूसरा हेतु है। किसी आप्त के साथ व्याकरण-प्रश्नोव्याकरणं-प्रश्नोत्तरपूर्वकं मननं कृत्वा कश्चित् तत् संज्ञानं तर पूर्वक मनन कर कोई उस ज्ञान को प्राप्त करता है। प्राचीन लभते । प्राचीनव्याख्यायां 'पर' शब्द उत्कृष्टतावाच- ____ व्याख्या के अनुसार 'पर' शब्द उत्कृष्टता का वाचक है। धर्म के कोऽस्ति । धर्मक्षेत्रे तीर्थकरा उत्कृष्टाः वर्तन्ते । अत एव क्षेत्र में तीर्थकर उत्कृष्ट होते हैं। इसलिए 'परव्याकरण' का हार्द परव्याकरणस्य हृदयमस्ति तीर्थकरव्याकरणम्। है-तीर्थंकर द्वारा व्याख्यात। नियुक्ति में इस अर्थ का समर्थन नियुक्त्यामसावर्थः समथितोऽस्ति-परवइवागरणं पुण मिलता है-'परवचन-व्याकरण ही जिन-व्याकरण है, क्योंकि जिन जिणवागरणं जिणा परं नत्थि ।'२
से उत्कृष्ट कोई नहीं है।' ___ अस्मिन् विषये मेघकुमारस्य जातिस्मरणज्ञानोल्लेखः इस विषय में मेघकुमार के जातिस्मृति ज्ञान का उल्लेख संगतोऽस्ति । गौतमस्वामिन उदाहरणमपि चूणौ वृत्तौ करना संगत है। चूणि और वृत्ति में गौतम स्वामी के उदाहरण का च उकितमस्ति । गौतमस्वामिना भगवान् वर्द्धमान- भी उल्लेख किया गया है। गौतम ने भगवान् बर्द्धमान महावीर से स्वामी पृष्टो-'भगवन् ! किमिति मे केवलज्ञानं
पूछा-भगवन् ! मुझे केवलज्ञान क्यों नहीं हो रहा है ? भगवान् नोत्पद्यते ? भगवता व्याकृतम्-भो गौतम ! भवतो
ने कहा -गौतम ! इसका कारण है मेरे प्रति तुम्हारा अत्यधिक ममोपरि अतीव स्नेहोऽस्ति, तद्वशात् ।' तेनोक्तम्---
अनुराग । गौतम ने कहा-भगवन् ! ऐसा ही है, ऐसा ही है । 'भगवन् ! एवमेवम् । किन्निमित्तः पुनरसौ मम भगव- भगवान के प्रति मेरा यह स्नेह किस कारण से है ? । दुपरि स्नेहः ?'
ततो भगवता तस्य बहुषु भवान्तरेषु पूर्वसम्बन्धः भगवान् ने तब उसके साथ अनेक जन्मों का पूर्व-सम्बन्ध समावेदितः-'चिरसंसिट्ठोसि मे गोयमा ! चिरपरि- बतलाते हुए कहा-'गौतम ! तुम्हारा मेरे साथ लम्बे समय तक चिओसि मे गोयमेत्येवमादि । तच्च तीर्थकृव्याकरण- संसर्ग रहा है । तुम मेरे चिर-परिचित हो ?' आदि । तीर्थंकर की माकर्ण्य गौतमस्वामिनो विशिष्टदिगागमनादि- उस वाणी को सुनकर गौतम स्वामी को विशिष्ट दिशागमन-मैं विज्ञानमभूत् ।
किस दिशा से, कहां से आया हूं-आदि का ज्ञान प्राप्त हुआ। अन्येषामन्तिके श्रवणम्
दूसरों के पास सुनना ___ एष तृतीयो हेतुः। न व्याकरणं कृतं, किन्तु केनचिद् यह तीसरा हेतु है। बिना पूछे किसी अतिशयज्ञानी के द्वारा अतिशयज्ञानिना स्वत एव निरूपितं श्रुत्वा कश्चित् तत् स्वतः ही निरूपित तथ्य को सुनकर कोई पूर्वजन्म का संज्ञान प्राप्त संज्ञानं लभते । प्राचीनव्याख्यायां अन्यपदेन तीर्थंकर- कर लेता है । प्राचीन व्याख्या के अनुसार 'अन्य' पद से तीर्थंकर के व्यतिरिक्ताः सर्वेऽपि विशिष्टज्ञानिनो गहीताः । अत्रास्ति अतिरिक्त सभी विशिष्ट ज्ञानियों का ग्रहण किया गया है। इस निर्यक्तिप्रवचनम्-अण्णेसि सोच्चंतिय जिणेहिं सम्वो विषय में नियुक्ति की व्याख्या इस प्रकार है-'अन्य के पास सुनकर परो अण्णो। चूणिकृता निर्युक्तेरथं विवृण्वता नामो- -तीर्थंकरों से अतिरिक्त सभी अन्य हैं।' चूर्णिकार नियुक्ति के अर्थ ल्लेखपूर्वकं व्याख्यातमस्ति-तित्थगरवइरित्तो जो अण्णो का विस्तार करते हुए नामोल्लेख पूर्वक बताते हैं कि तीर्थकर से केवली वा, ओहिणाणी वा, मणपज्जवनाणी वा, चोहस- अतिरिक्त जो अन्य केवली, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, पुव्वी वा, दसपुव्वी वा, णवपुव्वी वा, एवं जाव आयार- दसपूर्वी, नवपूर्वी, आठपूर्वी आदि से लेकर आचारधर, सामायिकधर, धरो वा, सामाइयधरो वा, सावओ वो, अण्णतरो वा । श्रावक या कोई सम्बग्दृष्टि-ये सभी व्यक्ति 'अन्य' के अन्तर्गत सम्मदिट्ठी।
आते हैं। केषाञ्चिद् जन्मजाता पूर्वजन्मस्मृति: न हि भवति, कुछ मनु यों को पूर्वजन्म की स्मृति जन्मजात नहीं होती, किन्तु किञ्चिन्निमित्तमासाद्य तेषां पूर्वजन्मस्मृतिर्जायते। लेकिन किसी निमित्त के मिलने पर उनको पूर्वजन्म की स्मृति हो १. सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थान २१५७ :
३. अंगसुत्ताणि २, भगवई, १४१७७ । भावितः पूर्वदेहेषु, सततं शास्त्रबुद्धयः ।
४. आचारांग वृत्ति, पत्र २० । भवन्ति सत्त्वभूयिष्ठाः, पूर्वजातिस्मराः नराः ॥
५. आचारांग नियुक्ति, गाथा ६६ । २. आचारांग नियुक्ति, गाथा ६६ ।
६. आचारांग चूणि, पृष्ठ १३ ।
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