SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 474
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारांगभाष्यम् भाष्यम् १३–यद्यपि अनगारपदं गृहत्यागिनां यद्यपि 'अनगार पद गृहत्यागी भिक्षुओं का वाचक है, फिर भी भिक्षणां वाचकमस्ति तथापि वैशिष्टयन जैनमुनीनां यह शब्द विशेषरूप से जैन मुनियों के प्रसंग में प्रयुक्त होता है। संभव प्रसने प्रयुज्यते । अत्र संभवति भगवतः पार्श्वस्य है कि यह शब्द भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्यों के उद्देश्य से प्रयुक्त हुआ शिष्यानुद्दिश्य प्रयुक्तम् । अथवा अन्येषां तीथिकानां हो। अथवा यह शब्द अन्यतीर्थिक भिक्षुओं के लिए भी प्रयुक्त हुआ कृतेऽपि प्रयुक्तं स्यात् ।' अस्यानुसारी उपदेशः इसका संवादी उपदेश है--- सीओसिणच्चाई से निग्गंथे अरइ-रइ-सहे फरुसियं णो 'निर्ग्रन्थ सर्दी और गर्मी को सहन करता है। वह संयम में वेदेति ।" अरति और असंयम में रति को सहन करता है, उनसे विचलित नहीं होता। वह कष्ट का वेदन नहीं करता।' १४. संघाडिओ पविसिस्सामो, एहा य समादहमाणा। पिहिया वा सक्खामो, अतिदुक्खं हिमग-संफासा॥ सं०-संघाटी: प्रवेक्ष्यामः, एधान् समादहन्तः । पिहिताः वा शक्ष्यामः अतिदुःखं हिमकसंस्पर्शाः। वे वस्त्रों में लिपट जाने का संकल्प करते थे। कुछ संन्यासी 'इंधन जला, किवाड़ों को बन्द कर उस सर्दी को सह सकेंगे', इस संकल्प से ऐसा करते थे, क्योंकि हिम के स्पर्श को सहन करना बहुत ही कष्टदायी है। भाष्यम् १४-संघाडिओ-कम्बलादिवस्त्राणि ।' एधसां संघाटी का अर्थ है-कंबल आदि वस्त्र । ईंधन जलाने की समादहनं अन्यतीथिकानां कृते, न तु पापित्य- बात अन्यतीथिकों की अपेक्षा से है । भगवान् पार्श्व के शिष्य अग्नि का राचीर्णमिदम् । कम्बलादीनां परिधानं, एधसां समा- प्रयोग नहीं करते थे । कंबल आदि वस्त्रों का परिधान पहन कर, दहनं, कपाटयोः पिधानं च कृत्वा गृहस्थैरन्यतीथिकैर्वा ईंधन जलाकर तथा किवाड़ों को बंद कर गृहस्थ अथवा अन्यतीर्थिक शीतप्रतिकारः कृतः । तस्यामवस्थायां भगवता हिममये भिक्षु सर्दी का प्रतिकार करते थे। उस स्थिति में भगवान् ने हिममय प्रदेशेऽपि उक्तत्रयीं विनापि शीतं सोढम् । प्रदेश में भी उक्त तीनों साधनों का अवलम्बन नहीं लिया, उन्होंने इन साधनों के बिना भी सर्दी को सहन किया । १५. तंसि भगवं अपडिण्णे, अहे वियडे अहियासए दविए। णिक्खम्म एगदा राओ, चाएइ भगवं समियाए । सं0-तस्मिन् भगवान् अप्रतिज्ञः अधोविवृते अधिसहते द्रव्यः । निष्क्रम्य एकदा रात्रौ, शक्नोति भगवान् सम्यक्तया । उस शिशिर ऋतु में भी भगवान् अप्रतिज्ञ थे-संकल्प रहित थे। वे समभाव में एकाग्न होकर खुले मंडप में (खड़े-खड़े) सर्दी को सहन करते थे । रात को सर्वी प्रगाढ़ हो जाती, तब भगवान् उस मंडप से बाहर चले जाते । (वहाँ से फिर मंडप में आ जाते और फिर बाहर चले जाते ।) इस प्रकार भगवान् सम्यक्तया उसे सहन करने में समर्थ होते। १. चूणा वृत्तौ च अनगारपदेन अन्यतीथिकाणां पार्वापत्यानां च ग्रहणमस्ति(क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१७ : तंपि एगा अण्णतित्थिया वसहीओ निवाता करेंति, पाउरणाइं फंफुगाई, उप्फ आहारयं, चुण्णं एत्यं भुंजंति, जतिवि कुंचियाविज्झे (छिद्दे) ण सीतं एति तेणेति भणति-दुक्खाविओ, जेवि पासावच्चिज्जा तेवि ण संजमे रमंति। आचारांग वृत्ति, पत्र २८१ : 'एके न सर्वे 'अनगाराः' तीथिकप्रवजिता हिमवाते सति शीतपीडितास्तदपनोदाय पावकं प्रज्वालयन्तिअङ्गारशकटिकामन्वेषयन्ति, प्रावारादिकं याचन्ते, यदिवाऽनगारा इतिपार्श्वनाथतीर्थप्रव्रजिता गच्छवासिन एवं शीतादिता निवातमेषन्ति घङ्घशाला दिका वसतीर्वातायनादिरहिताः प्रार्थयन्ति ।' २. आयारो, ३७॥ ३. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१७ : वत्थाणि कंबलगादि पहिरिस्सामो, पाउणिस्सामो, समिहातो कट्ठाई, ताई समाडहमाणा गिहत्थअण्णउत्थिय, एवं सीतपडिगारं करेमाणो तहावि दुक्खं शीतं अहियासेइ । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २८१ : इह संघाटीशब्देन शीता पनोवक्षम कल्पवयं त्रयं वा गृहचते, ताः सङ्काटीः शीतादिता वयं प्रवेक्ष्यामः, एवं शीतादिता अनगारा अपि विदधति, तीथिकप्रजितास्त्वेधाः समिधः काष्ठानोतियावद् एताश्च समादहन्तः शीतस्पर्श सो, शक्ष्यामः, तथा संघाट्या वा पिहिताः-स्थगिताः कम्बलाद्यावृतशरीरा इति। Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy