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________________ मूल सूत्र तया भाष्यगत विषय-विवरण ७. संकुल स्थानों में भी एकाग्रता से ध्यान । पूछने पर भी मौन । ध्यान से विचलन नहीं । ८. न वरदान न शाप । तटस्थभाव । ९. कौतुकपूर्ण प्रवृत्तियों का परिहार १०. माध्यस्थ्यभाव का अनुशीलन • अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों में स्मृति का __ अनियोजन। ११. भगवान् की गृहवासी साधना का आकलन १२-१३. छहों जीवनिकायों की हिंसा से उपरति का कारण १४. जीव सर्वयोनिक १५. पाप-कर्म के प्रत्याख्यान का कारण १६. क्रियावाद और अक्रियावाद की समीक्षा कर ऋषभ द्वारा प्रतिपादित कर्मक्षय की क्रिया का स्वीकार १७. प्राणवध तथा सर्वकर्मावहा स्त्रियों का परिहार १८. भगवान् की आहारचर्या । आधाकृत का सर्वथा परिहार १९. भगवान् की उपकरणचर्या । परवस्त्र तथा परपात्र का वर्जन । अवमान संखडि का परिहार २०. अशन-पान के मात्राज्ञ । रसपरित्याग तप का आसेवन । कायक्लेश तप का आचरण २१. गमन में अहिंसा के प्रति जागरूकता। ० अल्पभाषिता । २२. भगवान् की शिशिर ऋतु में गमन-चर्या । २३. संकल्पमुक्त होकर विधि का आचरण । दूसरा उद्देशक १. भगवान् द्वारा सेवित शयन और आसन २-४. भगवान के विभिन्न आवास-स्थल । उत्कृष्ट तेरह वर्ष का साधना-काल ५. निद्रासुख के प्रति अप्रतिज्ञ ६. निद्रा पर विजय का उपक्रम ७. आवास-स्थलों में उत्पन्न उपसर्ग और भगवान् की ध्यानलीनता ८. कुचर तथा ग्रामरक्षकों द्वारा कृत उपसर्ग ० काम-संबंधी उपसर्ग ९-१०. इहलौकिक और पारलौकिक उपसर्गों को सहन करने का आलंबन-सूत्र तथा रति और अरति को पराभूत करने का उपाय ११-१२. पृच्छा करने पर मौन । मौन से आक्रोश • भगवान् प्रतिकार के संकल्प से रहित ० स्थान का त्याग करने पर भी ध्यान का त्याग नहीं ३६ ० शून्य या एकांत स्थान में भी उपसर्ग १३-१५. शिशिर ऋतु में अत्यंत शीत को सहना तथा हिमवात में अप्रकंपित रहना • शिशिर ऋतु में अन्य भिक्षुओं की चर्या और उनके शीत-प्रतिकार के साधन । भगवान् का प्रगाढ सर्दी में भी रात को मंडप से बाहर गमन-आगमन । शीत सहने का प्रकार १६. संकल्पमुक्त होकर विधि का प्रतिपालन तीसरा उद्देशक १. निषद्या में तृणस्पर्श का परीषह २-८. लाढ देश की वज्रभूमि और सुम्हभूमि में भगवान् का विहार । वहां की भौगोलिक और क्षेत्रीय स्थिति तथा वहां के लोगों का रहन-सहन, शील-सदाचार, सभ्यता-संस्कृति का संक्षिप्त वर्णन । भगवान् के उपसर्ग । ९-१०. प्रहारों की बौछार और लोगों की प्रसन्नता ११. भगवान् के शरीर से मांस काटना, शरीर पर थूकना आदि कष्ट तथा भगवान् का काय-व्युत्सर्ग का सफल प्रयोग १२. ध्यानस्थित भगवान् को ऊपर से नीचे गिराना, आसन से स्खलित करना । व्युत्मुष्टकाय भगवान् का समभाव । १३. संवर का कवच और कष्टों का अधिसहन १४. संकल्पमुक्त होकर विधि का आचरण चौथा उद्देशक १. रोग से अस्पृष्ट होने पर भी अवमौदर्य तप । चिकात्सा न कराने का संकल्प । अचिकित्सा कायव्युत्सर्ग का प्रयोग। पंचकर्म चिकित्सा का परिहार। २. संशोधन, वमन, विरेचन आदि का सर्वथा परिहार ३. शरीर चिकित्सा का निषेध, मोहचिकित्सा के उपायों की अनुपालना । • मोहचिकित्सा के दो अंग-अबहुवादित्व और कायक्लेश । ४-६. मोहचिकित्सा का तीसरा अंग-आतप सहन और रूक्ष भोजन से जीवन-यापन • आठ मास तक ओदन, कुल्माष और मंथु का भोजन । ० जागरण का प्रयोग। ० पर्युषित अन्न का ग्रहण । ७. तप-समाधि में संलग्नता Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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