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अ०८. विमोक्ष, उ०१-२. सूत्र २०-२२
३६७ या तुम्हारे उद्देश्य से उसे खरीदता हूं, उधार लेता हूं, दूसरों से छीनता हूं, वह मेरे भागीदार द्वारा अनुज्ञात नहीं है या उसे यहां लाता हूं। इस प्रकार का अशन आदि मैं तुम्हें देना चाहता हूं। तुम्हारे लिए उपाश्रय का निर्माण करता हूं। हे आयुष्मन् श्रमण ! उस (अशन, पान आदि) का उपभोग करो और उस उपाश्रय में रहो।
भाष्यम् २१-श्मशानवासविषये एषा चूर्णिकार- श्मशान-वास के विषय में चूर्णिकार द्वारा निर्दिष्ट प्राचीन निर्दिष्टा प्राचीनपरम्परा-गच्छवासी श्मशाने न परंपरा यह है- गच्छवासी मुनि श्मशान में न रहे। प्रतिमा की तिष्ठेत । प्रतिमाप्रतिपन्नः यत्र सूर्यास्तमेति तत्रैव तिष्ठति साधना को स्वीकार करने वाला मुनि जहां सूर्य अस्त होता है, उसे तेन स तिष्ठेत अथवा सत्त्वभावनया जिनकल्पपरिकर्म वहीं ठहरना होता है, इसलिए प्रतिमा-प्रतिपन्न मुनि श्मशान में ठहर कुर्वाणः तिष्ठेत्, सोऽपि किल न श्मशाने तिष्ठति, किन्तु सकता है । अथवा सत्त्वभावना से जिनकल्प का परिकर्म-जिनकल्प श्मशानस्य पार्वे तिष्ठति ।
अवस्था को स्वीकार करने की तैयारी करने वाला मुनि श्मशान में रह सकता है। वह भी श्मशान में नहीं, किन्तु श्मशान के पार्श्ववर्ती
क्षेत्र में रह सकता है। मूलपाठे श्मशानादिपञ्चपदानां संग्रहो विद्यते, किन्तु मूलपाठ में श्मशान आदि पांच पदों का संग्रह है, किन्तु चूणि चूर्णी अन्येषां बहनां पदानां निर्देशः अस्ति ।'
में अन्य अनेक पदों का निर्देश है। हुरत्या-बहिस्ताद् । पामिच्च-अभिहडपदे 'हुरत्या' का अर्थ है-बाहर। यह देशीपद है। प्रामित्य दशवैकालिकवद् । 'अच्छेज्ज-अणिसठ्ठपदे च स्थानांग- तथा अभिहत के लिए क्रमशः देखें-दसवेआलियसूत्र का ५२११५५ वद् द्रष्टव्ये।
तथा ३।२ का टिप्पण। अच्छेद्य तथा अनिसृष्ट के लिए देखें-ठाणं
९।६२ का टिप्पण। २२. भिक्ख तं गाहावति समणसं सवयसं पडियाइक्खे--आउसंतो गाहावती! णो खलु ते वयणं आढामि, णो खल ते
वयणं परिजाणामि, जो तुमं मम अट्टाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताई समारम्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अणिसट्ठ अभिहडं
आहट्ट चेएसि, आवसहं वा समुस्सिणासि, से विरतो आउसो गाहावतो! एयस्स अकरणाए। सं०-भिक्षुः तं गृहपति समनसं सवचसं प्रत्याचक्षीत-आयुष्मन् गृहपते ! नो खलु तव वचनं आद्रिये, नो खलु तव वचनं परिजानामि, यः त्वं ममार्थ अशनं वा, पानं वा, खाद्यं वा, स्वाद्यं वा, वस्त्रं वा, प्रतिग्रहं वा, कम्बलं वा, पादप्रोञ्छनं वा, प्राणान् भूतान् जीवान् सत्त्वान् समारभ्य समुद्दिश्य क्रीतं प्रामित्यं आच्छेद्यं अनिसष्टं अभिहृतं आहृत्य ददासि आवसथं वा समुच्छृणोषि तस्माद् विरतः आयुष्मन् गृहपते ! एतस्य अकरणाय ।। भिक्षु भद्र मन और वचन वाले उस गृहपति को प्रतिषेध की भाषा में कहे-आयुष्मन् गृहपति ! मैं तुम्हारे वचन को आदर नहीं देता हूं, स्वीकार नहीं करता हूं, जो तुम प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों का समारंभ कर मेरे लिए अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन बनाते हो या मेरे ही उद्देश्य से उसे खरीदते हो, उधार लेते हो, दूसरों से छीनते हो, तुम्हारे भागीदार की अनुज्ञा प्राप्त नहीं करते हो या अपने घर से यहां लाकर देना चाहते हो अथवा मेरे लिए उपाश्रय का निर्माण करते हो। आयुष्मन् गृहपति ! मैं उससे विरत हुआ हूं। मेरे लिए यह अकरणीय है।
भाष्यम् २२-स्पष्टमेव ।
१. आचारांग चूणि, पृष्ठ २६०-२६१ : परिव्वयागआवसह
मादिएहि दगसोदरियमादीहि जया छड्डिता, उवट्टणगिहं किर घंघसाला सा गाममज्झेसु कुज्जति पुव्वदेसमादीएहि, दक्खिणापहे गामदेउलिया भवति, वेउलियासु प्रायेण वाणमंतरा हविज्जति, कम्मगारसालाए वा तंतुवायगसालाए वा लोहगारसालाए वा जत्तियाओ साला सव्वाओ भाणियग्वाओ। २. आचारांग चूणि, पृष्ठ २६१ : हुरत्थं बहिता गामादीणं
स्पष्ट है।
देसीभासा उज्जाणादिसु । ३. (क) पामिच्च-द्रष्टव्यम् -दसवेआलियसूत्रस्य ५॥११५५
टिप्पणम् । (ख) अभिहडं-द्रष्टव्यम्-दसवेआलियसूत्रस्य ३२
टिप्पणम्। ४. अच्छेज्ज-अणिसट्ठ-द्रष्टव्यम्-ठाणसूत्रस्य ९६२ टिप्पणम् ।
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