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________________ आचारांगभाव्यम् २३. से भिक्ख परक्कमेज्ज वा, चिठेज्ज वा, णिसीएज्ज वा, तुयज्ज वा, सुसाणंसि वा, सुन्नागारंसि वा, गिरिगृहंसि वा, रुक्खमूलंसि वा, कुंभारायतणंसि वा, 'हरत्था' वा कहिंचि विहरमाणं तं भिक्खं उवसंकमित्त गाहावती आयगयाए पेहाए असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा वस्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायछणं वा पाणाइं भूयाइं जीवाई सत्ताई समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अणिसठं अभिहडं आहट्ट चेएइ, आवसहं वा समुस्सिणाति तं भिक्खं परिघासेउं । सं०-स भिक्षुः पराक्रमेत वा, तिष्ठेद् वा, निषीदेद् वा, शयीत वा, श्मशाने वा, शून्यागारे वा, गिरिगुहायां वा, रूक्षमूले वा, कुम्भकारायतने वा, 'हुरत्था' वा कुत्रचिद् विहरन्तं तं भिक्षु उपसंक्रम्य गृहपतिः आत्मगतया प्रेक्षया अशनं वा, पानं वा, खाद्यं वा, स्वाद्यं वा, वस्त्रं वा प्रतिग्रहं वा, कम्बलं वा, पादप्रोञ्छनं वा, प्राणान् भूतान् जीवान् सत्त्वान् समारभ्य समुद्दिश्य क्रीतं प्रामित्यं आच्छेद्यं अनिसृष्टं अभिहृतं आहृत्य ददाति आवसथं वा समुछणोति तं भिक्षु परिघासयितुम् । भिक्षु कहीं जा रहा है, श्मशान, शून्यगृह, गिरि-गुफा, वृक्ष के नीचे या कुम्हार के आयतन में खड़ा, बैठा या लेटा हुआ है अथवा (गांव से) बाहर कहीं भी विहार कर रहा है। उस समय कोई गृहपति आत्मगत भावों को प्रकट न करता हुआ उसके पास आकर-प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के समारम्भपूर्वक बनाया हुआ अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन या उद्देश्यपूर्वक खरीदा हुआ, उधार लिया हुआ, दूसरों से छीना हुआ, उसके भागीदार द्वारा अननुज्ञात या अपने घर से वहां लाया हुआ अशन आदि उसे देना चाहता है या उपाश्रय का निर्माण करता है । यह सब भिक्षु के भोजन या आवास के लिए करता है। भाष्यम् २३-परिघासेउं-परिभोजयितुम् ।' परिघासेउं का अर्थ है-भोजन के लिए। २४. तं च भिक्ख जाणेज्जा-सहसम्मइयाए, परवागरणेणं, अण्णेसि वा अंतिए सोच्चा अयं खलु गाहावई मम अट्टाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं धा कंबलं वा पायपुंछणं वा पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताइं समारम्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्ज अणिसट्ठ अमिहडं आहट्ट चेएइ, आवसहं वा समुस्सिणाति, तं च भिक्खू पडिलेहाए आगमेत्ता आणवेज्जा अणासेवणाए त्ति बेमि। सं०-तच्च भिक्षुः जानीयात्--स्वसंस्मृत्या, परव्याकरणेन अन्येषां वा अन्तिके श्रुत्वा अयं खलु गृहपतिः ममार्थं अशनं वा, पानं वा, खाद्यं वा, स्वाद्यं वा, वस्त्रं वा, प्रतिग्रहं वा, कम्बलं वा, पादप्रोञ्छनं वा, प्राणान् भूतान् जीवान् सत्त्वान् समारभ्य समुद्दिश्य क्रीतं प्रामित्यं आच्छेद्यं अनिसृष्टं अभिहृतं आहृत्य ददाति आवसथं वा समुच्छृणोति तं च भिक्षु प्रतिलिख्य आगम्य आज्ञापयेत् अनासेवनाय इति ब्रवीमि । अपनी स्मृति, अतिशय ज्ञानी या अन्य किसी से सुनकर भिक्षु को यह ज्ञात हो जाए कि यह गृहपति मेरे लिए प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों के समारम्भपूर्वक अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोंछन बनाकर या मेरे उद्देश्य से खरीद कर, उधार लेकर, दूसरों से छीनकर, उसके भागीदार से अनुज्ञा न लेकर या अपने घर से यहां लाकर अशन आदि देना चाहता है या उपाश्रय का निर्माण करता है । भिक्षु आगम की आज्ञा को ध्यान में रखकर उस गृहस्थ से कहे-इनका मैं सेवन नहीं कर सकता, ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् २४-स्वसंस्मृत्यादिपदत्रयावबोधार्थ द्रष्टव्यम स्व-स्मृति आदि तीनों पदों की व्याख्या के लिए देखें१३ सूत्रम् । अनासेवनाय आज्ञापयेत् तं गृहपतिमिति आयारो १।३ । भिक्षु उस गृहस्थ से कहे-इनका मैं सेवन नहीं कर संबंधः । सकता। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २६३ : परिघासेउ-पडिलाभेलं, जं भणितं- भोतावेत्ता वत्थादीणि परिभुंजावेडं आवसहे परिवसाइउं। २. वृत्तौ (पत्र २४६) गृहपतिसंबंधः व्याख्यातोस्ति । किन्तु चूणों (पृष्ठ २६३-२६४) स भिक्षुः अन्यान् मिलन तदनासेवनाय आज्ञापयेत् इति उल्लिखितमस्ति - जति जिणकप्पिओ तो तुहिक्कओ चेव अच्छति, पारिहारिया पुण अणुपरिहारिताणं कहेंति, अहालिदिया सहाणे कहेंति गच्छवासीणं, हिंडंता वा उपस्सयं वा गंतुं आणविज्ज, अच्चत्थजणो व ते आणविज्जा, किमिति ? आउसंतो समणा! अमुयत्य गिहत्थेण मम णिमित्तण अन्नतरस्स वा साहूस्स साहूण वा संघस्स वा असणं वा ४ वत्थपडिग्गह जाव आवसहं वा समुस्सिणाति, अणासेवर्ण अगमणं अग्गहणं पुव्वगहियस्स वा अपडिभोगो।" Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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