SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 413
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०८.विमोक्ष, उ० २. सूत्र २३-२६ ३६९ २५..भिक्खू च खलु पुट्ठा वा अपुट्ठा वा जे इमे आहच्च गंथा फुसंति—'से हंता! हणह, खणह, छिदह, दहह, पचह, आलुपह, विलुपह, सहसाकारेह, विप्परामुसह-' ते फासे धीरो पुट्ठो अहियासए। सं०-भिक्षु च खलु पृष्ट्वा वा अपृष्ट्वा वा ये इमे आहृत्य ग्रन्थाः स्पृशन्ति-अथ हन्त ! हत, क्षणुत, छिन्त, दहत, पचत, आलुम्पत, विलुम्पत, सहसाकारयत, विपरामृशत-तान् स्पर्शान् धीरः स्पृष्टः अधिसहेत। भिक्षु को पूछकर या बिना पूछे (कुछ लोगों ने उसके लिए अशन आदि बनाया। भिक्षु के द्वारा उसका स्वीकार न करने पर) भिक्षु को कदाचित् रज्जु आदि बंधन से बांध देते हैं। वे अपने कर्मकरों को संबोधित कर कहते हैं-(तुम जाओ, व्यर्थ ही मेरे धन का अपव्यय कराने वाले उस भिक्षु को) पोटो, क्षत-विक्षत करो, हाथ-पैर आदि का छेदन करो, क्षार आदि से जलाओ, जलती लकड़ी से दाग दो, शरीर को नखों से नोंच डालो, बार-बार नोंच डालो, सिर काट डालो (या हाथी के पैर के नीचे कुचल डालो), नाना प्रकार से उसे पीडित करो।' उन कर्मकरों द्वारा कृत कष्टों के प्राप्त होने पर धीर मुनि उन्हें सहन करे । भाष्यम् २५-ग्रन्थः-बन्धः।' ग्रन्थ का अर्थ है-बंध । २६. अदुवा आयार-गोयरमाइक्खे, तक्किया ण मणेलिसं । अणुपुत्वेण सम्म पडिलेहाए आयगुत्ते । सं०-अथवा आचारगोचरमाचक्षीत तर्कयित्वा च अनीदृशम् । अनुपूर्वेण सम्यक् प्रतिलिख्य आत्मगुप्तः । अशन आदि बनाने वाले और उनके कर्मकरों को वह आत्मगुप्त मुनि यदि समझने योग्य जाने तो उन्हें क्रमशः सम्यक् प्रेक्षापूर्वक अपना असश-अन्यत्र अनुपलब्ध आचार-गोचर समझाए । २७. अदुवा गुत्तो गोयरस्स। सं०-अथवा गुप्तिः गोचरस्य । अथवा यदि वे समझने योग्य न हों, तो वह वाणी के विषय का संगोपन करे-मौन रहे। २८. बुद्धेहिं एवं पवेदितं-से समणुण्णे असमणुण्णस्स असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा नो पाएज्जा, नो निमंतेज्जा, नो कुज्जा वेयावडियं-परं आढायमाणे त्ति बेमि । सं०-बुद्ध रेतत् प्रवेदितम् - स समनुज्ञः असमनुज्ञस्य अशनं वा, पानं वा, खाद्यं वा, स्वाद्यं वा, वस्त्रं वा, प्रतिग्रहं वा, कंबलं वा, पादप्रोञ्छनं वा नो प्रदद्यात, नो निमंत्रयेद्, नो कुर्यात् वैयापत्यं -परं आद्रियमाणः इति ब्रवीमि । ज्ञानी आचार्यों ने ऐसा कहा है-समनुज्ञ मुनि असमनुज्ञ मुनि को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन न दे, न उन्हें देने के लिए निमंत्रित करे, न उनके कार्यों में व्याप्त हो, यह सब अत्यन्त आदर प्रदर्शित करता हुआ करे, ऐसा मैं कहता हूं। २६. धम्ममायाणह, पवेइयं माहणेण मतिमया-समणुण्णे समणुण्णस्स असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पाएज्जा, णिमंतेज्जा, कुज्जा वेयावडियं-परं आढायमाणे।-त्ति बेमि । सं० - धर्ममाजानीत प्रवेदितं माहनेन मतिमता - समनुज्ञः समनुज्ञस्य अशनं वा, पानं वा, खाद्यं वा, स्वाद्यं वा, वस्त्रं वा, प्रतिग्रह वा, कंबलं वा, पादप्रोञ्छनं वा प्रदद्यात्, निमन्त्रयेत्, कुर्यात् वैयापृत्यं-परं आद्रियमाणः । - इति ब्रवीमि । मतिमान् माहन के द्वारा निरूपित धर्म को जानो-समनुज्ञ मुनि समनुज्ञ मुनि को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन दे, उन्हें देने के लिए निमंत्रित करे, उनके कार्यों में व्याप्त हो। यह सब अत्यन्त आदर प्रदर्शित करता हुआ करे। - ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् २६-२९-स्पष्टम् । २६-२९ स्पष्ट है। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २६४ : 'णियलादिगंथा, यदुक्तं भवति-बंधा ।' चूणौं अस्य वैकल्पिकोऽपि अर्थः कृतोस्ति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy