SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 414
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७० आचारांगभाष्यम् तइओ उद्देसो : तोसरा उद्देशक ३०. मज्झिमेणं वयसा एगे, संबुज्झमाणा समृद्धिता। सं०- मध्यमेन वयसा एके संबुध्यमानाः समुत्थिताः । कुछ व्यक्ति मध्यम वय में सम्बोधि को प्राप्त कर प्रवजित होते हैं। भाष्यम् ३०-केचित् मध्यमे वयसि संबुध्यमाना: कुछ पुरुष मध्यम अवस्था में संबोधि को प्राप्त कर प्रवजित समुत्थिता:-प्रव्रजिता भवन्ति । पञ्चदशे सूत्रे (८।१५) होते हैं । पन्द्रहवें सूत्र (८।१५) में यह प्रतिपादित किया गया है कि त्रिष्वपि वयस्सु समुत्थानं भवतीति प्रतिपादितम् । प्रव्रज्या तीनों अवस्थाओं में ली जा सकती है। वह सामान्य तदस्ति सामान्यम् । प्रस्तुतसूत्रे अस्ति विशेषस्य निर्देशः । उल्लेख है । प्रस्तुत सूत्र में विशेष का निर्देश है। प्रायः मनुष्य मध्यम प्रायो जनाः मध्यमे वयसि संबुध्यन्ते, तेनात्र मध्यमवयो- वय में संबुद्ध होते हैं, इसलिए यहां मध्यम वय का ग्रहण किया हैग्रहणमिति चूर्णिकारस्य मतम् ।' यह चूर्णिकार का अभिमत है । ३१. सोच्चा वई मेहावी, पंडियाणं निसामिया । समियाए धम्मे, आरिएहि पवेदिते । संo-श्रुत्वा वाचं मेधावी पण्डितानां निशम्य समतायां धर्मः आर्यः प्रवेदितः । तीर्थंकरों ने समता में धर्म कहा है - आचार्यों की यह वाणी सुनकर बुद्ध-बोधित', मेधावी उसे हृदयंगम कर मध्यम वय में प्रवजित होते हैं। भाष्यम् ३१ - द्रष्टव्यम्-५।४० । देखें-५॥४० । ३२.ते अणवकंखमाणा अणतिवाएमाणा अपरिग्गहमाणा णो परिग्गहावंती सव्वावंती च णं लोगसि । सं० ते अनवकाङ्क्षन्तः अनतिपातयन्तः अपरिगृहन्तः नो परिग्रहवन्तः सर्वस्मिश्च लोके । वे कामभोगों के प्रति आसक्ति, प्राणियों के प्राणों का अतिपात और परिग्रह न करते हुए समूचे लोक में अहिंसक और अपरिग्रही होते हैं। भाष्यम् ३२-आकाङ्क्षा-लोभः । लोभमूलोस्ति आकांक्षा का अर्थ है-लोभ । अतिपात अर्थात् हिंसा का मूल अतिपात:-हिंसा। अतिपातमूलोस्ति परिग्रहः-धन- है- लोभ । परिग्रह का मूल है .... अतिपात । धन, धान्य आदि का धान्यादीनां संग्रहः । संग्रह परिग्रह है। जो पुरुष आकांक्षा, हिंसा और परिग्रह के चक्र से ये आकाक्षायाः अतिपातस्य परिग्रहस्य च मुक्त हो चुके हैं, वे ही वास्तव में सारे संसार में अपरिग्रह का मर्म चक्रकमत्तीर्णाः त एव वस्तुतः सर्वस्मिन् लोके अपरि- जानते हैं । चूणि में यह पद उद्धृत है - आकांक्षा करने वाले ठगे गए ग्रहस्य मर्म विदन्ति । उद्धतमस्ति चूर्णी-छलिता और आकांक्षा नहीं करने वाले मोक्ष को प्राप्त हो गए। अवयवंता अणवयक्वंता गया मोक्खं ।' ३३. णिहाय दंडं पाणेहि, पावं कम्मं अकुश्वमाणे, एस महं अगंथे वियाहिए। सं०-निधाय दण्डं प्राणेषु पापं कर्म अकुर्वाणः एष महान् अग्रन्थः व्याहतः । जो प्राणियों के प्रति अहिंसक है और पाप-कर्म नहीं करता वह महान् अपंथ -ग्रंथिमुक्त कहलाता है। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २६६,२६७ : 'मज्झिमगहणं तु प्रायसो मजिसमवयगहणं ।' मजिसमे वये बुज्झति तेण तग्गहणं, ते तु भुसभोगित्ता २. सम्बोधि प्राप्त मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं-स्वयंविगयकोउया सुहं विरागमग्गे चिट्ठति, विण्णाणं च तेसि संबुद्ध, प्रत्येक-बुद्ध और बुद्ध-बोधित । यह सूत्र बुद्ध-बोधित पटुयरं भवति, गणहरा य पायसो मजिसमे वये पम्वइया, व्यक्ति की अपेक्षा से है। तेहि य एतं सुरतं आयणिक्खमणपज्जायकवेणं मणितं, . ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २६७ । भगवंपि य मजिसमबए पडिवण्णो निक्खंतो, एअकारणओ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy